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जैन संस्कृति का आलोक
अतः तात्त्विक या पारमार्थिक दृष्ट्या उससे अभीप्सित ३. बला दृष्टि - बोध हो नहीं पाता। वह अल्पस्थितिक होती है। इसलिए जैसे काष्ठ की अग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, कोई संस्कार निष्पन्न कर नहीं पाती. जिसके सहारे व्यक्ति
अधिक समय टिकता है, कुछ शक्तिमान् भी होता है, इसी आध्यात्मिक बोध की ओर गति कर सके। केवल इतना प्रकार बलादष्टि में उत्पन्न बोध आया और गया - ऐसा सा उपयोग इसका है, बोधमय प्रकाश की एक हल्की सी नहीं होता। वह कछ टिकता भी है, सशक्त भी होता है। रश्मि आविर्भूत हो जाती है, जो मन में आध्यात्मिक इसलिए (वह) संस्कार भी छोड़ता है। छोड़ा हुआ संस्कार उद्बोध के प्रति किञ्चित् आकर्षण उत्पन्न कर जाती है। ऐसा होता है, जो तत्काल मिटता नहीं। स्मृति में आस्थित संस्कार निष्पत्ति नहीं पाता इसलिए ऐसे व्यक्ति द्वारा हो जाता है। वैसे संस्कार की विद्यमानता साधक को भावात्मक दृष्टि से शुभ कार्यों का समाचरण यथावत् रूप जीवन में वास्तविक लक्ष्य की ओर उबुद्ध रहने को में सधता नहीं, मात्र बाह्य या द्रव्यात्मक दृष्टि से वैसा होता प्रेरित करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति
उत्पन्न होती है। प्रीति की परिणति चेष्टा या प्रयत्न में
होती है। २. तारा दृष्टि
४. दीपा दृष्टि - तारा दृष्टि में समुत्पद्यमान बोध गोमय (गोबर) या
दीप्रा दृष्टि में होनेवाला बोध दीपक की प्रभा से उपलों के अग्निकणों से उपमित किया गया है। तिनकों
उपमित किया गया है। पूर्वोक्त तीन दृष्टियों में उपमान के के अग्निकण और उपलों के अग्निकण प्रकाश तथा उष्मा
रूप में जिन-जिन प्रकाशों का उल्लेख हुआ है, दीपक का की दृष्टि से कुछ तरतमता लिए रहते हैं। तिनकों की
प्रकाश उनसे विशिष्ट है। वह लम्बे समय तक टिकता है। अग्नि की अपेक्षा उपलों की अग्नि के प्रकाश एवं उष्मा
उसमें अपेक्षाकृत स्थिरता होती है। वह सर्वथा अल्प बल कुछ विशिष्टता लिए रहते हैं, पर बहुत अन्तर नहीं होता।
नहीं होता। उसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है। उपलों की अग्नि का प्रकाश भी अपेक्षाकृत अल्पकालिक
उसी प्रकार दीप्रा दृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों होता है। लम्बे समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए
के बोध की अपेक्षा दीर्घकाल तक टिकता है, अधिक इसके सहारे किसी भी वस्तु का सम्यक्दर्शन नहीं हो
शक्तिमान् होता है । बला दृष्टि की अपेक्षा कुछ और दृढ़ सकता। तारा दृष्टि की ऐसी ही स्थिति है। उसमें बोधमय संस्कार छोडता है जिससे साधक की अन्तःस्फर्ति. सक्रिया प्रकाश की जो झलक उद्भासित होती है, यद्यपि वह के प्रति प्रीति और तदन्मख चेष्टा की स्थिति बनी रहती मित्रादृष्टि में होने वाले प्रकाश से कुछ तीव्र अवश्य होती है। इतना तो होता है, पर साधक के क्रिया-कलाप में है पर स्थिरता, शक्तिमत्ता आदि की अपेक्षा से अधिक अब तक सर्वथा अन्तर्भावात्मकता नहीं आ पाती, अन्तर नहीं होता, इसलिए उससे भी साधक का कोई द्रव्यात्मकता या बहिर्मुखता ही रहती है। वन्दन, नमस्कार, विशेष कार्य नहीं सधता, इतना सा है, मित्रा दृष्टि में जो अर्चना, उपासना - जो कुछ वह करता है, वह द्रव्यात्मक, झलक मिली थी वह किञ्चित् अधिक ज्योतिर्मयता के यांत्रिक या बाह्य ही होती है। सक्रिया में संपूर्ण तन्मयता साथ साधक को तारा दृष्टि में स्वायत्त हो जाती है। का भाव उस पुरुष में आ नहीं पाता, इसलिए वह क्रिया तरतमता की दृष्टि से इसमें कुछ वैशेष्य आता है। आन्तरिकता से नहीं जुड़ पाती। | जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग दृष्टियाँ
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