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________________ जैन संस्कृति का आलोक में एक ही आत्म सत्ता है। व्यावहारिक स्तर पर भय पर विजय पाने का प्रयत्न करना अहिंसा-साधना का एक अंग है। श्रीरामकृष्ण इसका उपदेश दिया करते थे। मास्टर महाशय एक बार नाव के डाँवाडोल होने पर भयभीत होकर उतर गए थे। वे अपने परिवारवालों से भी भयभीत रहते थे। श्रीरामकृष्ण ने उन्हें इसे त्यागने का उपदेश दिया था। ___ माँ शारदा तो प्रेम व अहिंसा की जीवन्त प्रतिमर्ति ही थीं। “कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं. सभी को अपना बनाना सीखो" - माँ शारदा का यह उपदेश अहिंसा और प्रेम का ही उपदेश है। “किसी का दोष न देखो" यह उनका सबसे महत्त्वपूर्ण सन्देश अहिंसा का आधार है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार भी अहिंसा सर्वोपरि है। वे अहिंसा के महत्त्व को समझने के लिए पवहारी बाबा का दृष्टान्त दिया करते थे जिनके लिए सांप, चोर आदि सभी परमात्मा के ही रूप थे। स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि जो पर्ण नैतिक है वह किसी प्राणी या व्यक्ति की हिंसा नहीं कर सकता। जो मुक्त होना चाहता है, उसे अहिंसक बनना होगा। जिसमें पूर्ण अहिंसा का भाव है उससे बढ़कर कोई शक्तिशाली नहीं है। स्वयं स्वामीजी ऐसी स्थिति में अवस्थित थे जहाँ से वे संसार के समस्त प्राणियों के कष्टों का अनुभव कर सकते थे। वे संसार के उद्धार के लिए बार-बार जन्म लेने के लिए भी प्रस्तुत थे। अहिंसा और आहार अहिंसा की चर्चा करने पर साधारणतया लोगों में कीड़े मकोड़ों की हत्या न करना तथा निरामिष भोजन का विचार आता है। उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो गया होगा कि वास्तविक अहिंसा इन स्थूल विषयों से कहीं अधिक व्यापक है। जिससे अहिंसा को व्रत के रूप में अपनी साधना के प्रमुख अंग के रूप में स्वीकार किया है उसे निश्चित रूप से मांसाहार अथवा आमिष भोजन का त्याग करना चाहिए। योगियों के लिए भी आमिष भोजन वर्जित है। अन्य प्राणी के मांस से स्वयं के शरीर के पोषण का विचार अत्यन्त गर्हित है। मांस-मछली आदि तमोगुणी आहार हैं, एवं किसी भी साधक के लिए उपयोगी नहीं माने जा सकते। शीत प्रधान देशों में रहने वाले लोग बाल्यकाल से ही मांसाहार करते हैं। उनका शरीर एवं मन मांस खाने का अभ्यस्त हो जाता है। लेकिन ऐसे लोगों को भी साधना प्रारम्भ करने तथा कुछ प्रगति करने पर एक अवस्था में उसका त्याग कर निरामिष आहार को ग्रहण करना पड़ता है। हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि मैथुन, मद्यपान एवं मांसाहार मानवों के लिए स्वाभाविक है, लेकिन इनके त्याग में महान् पुण्य है। आहार का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः। अतः जहाँ तक आध्यात्मिक साधक का प्रश्न है उसके लिए निरामिष आहार ही श्रेष्ठ है यह बात असंदिग्ध है। - स्वामी ब्रह्मेशानन्द सुप्रतिष्ठित आध्यात्मिक संस्थान श्री रामकृष्ण मिशन के एक वरिष्ठ सन्यासी हैं। आपने १६६४ में एम.डी. की उपाधि प्राप्त की तथा बाइस वर्षों तक रामकृष्ण मिशन के बृहद चिकित्सालय, वाराणसी में सेवा कार्य किया। आजकल आप चेन्नई में अंग्रेजी मासिक "वेदांत केसरी" का संपादन कर रहे हैं। आपने जैन धर्म पर अंग्रेजी एवं हिन्दी में कई आलेख लिखे हैं। आपने मिशन द्वारा हिन्दी में “महावीर की वाणी" व अंग्रेजी में "Thus spake Lord Mahavira" प्रकाशित की है। आप एक श्रेष्ठ वक्ता, चिंतक एवं लेखक हैं। -सम्पादक अहिंसा परमो धर्मः ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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