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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि अपना सारा समय गंवा देते हैं और यदि कहीं गलती से स्वयं भोजन करके अपने अनेक भूखे भक्तों की क्षुधा कीड़ा मर जाय तो अत्यधिक शोक करने लगते हैं। वे निवृत्ति की थी। यह भी तभी सम्भव है जब वे स्वयं को भूल जाते हैं कि इस साधना का चरम लक्ष्य सर्वभूतों में सभी की देहों में अवस्थित देखें। एक मांझी के दूसरे स्वयं की आत्मा का दर्शन करना है। मांझी पर कराघात करने पर स्वयं उसका अनुभव करना इससे सम्बन्धित एक और समस्या है। सभी साधनों तथा घास पर चल रहे व्यक्ति के पदाघात को स्वयं के की तरह अहिंसा के भी दो पक्ष हैं। स्थूल – शारीरिक सीने पर अनुभव करना भी श्रीरामकृष्ण के पारमार्थिक अहिंसा में प्रतिष्ठित होने के दृष्टान्त हैं। वे सर्वत्र यहाँ तक अथवा भौतिक तथा सूक्ष्म - भावरूप, अथवा मानसिक। कालान्तर में स्थूल पर अधिक बल दिया जाने लगता है कि वनस्पति में भी आत्मा का दर्शन करते थे, अतः एक क्योंकि वह सरल होता है, आसानी से समझ में आता है, अवस्था ऐसी आई थी जब वे हरी दूब पर पैर नहीं रख तथा प्रत्यक्ष दिखाई देता है, उसकी सामाजिक मान्यता सकते थे तथा उसे बचा कर, सुखी जमीन पर पैर रख होती है तथा प्रशंसा भी प्राप्त होती है। अहिंसा के सम्बन्ध रख कर चलते थे। में भी यही बात है। मानसिक या भाव अहिंसा अधिक जहाँ तक भाव अहिंसा अथवा मानसिक अहिंसा का महत्वपूर्ण होते हुए भी अधिक कठिन होती है। किसी प्रश्न है, इसमें भी श्रीरामकृष्ण पूर्ण प्रतिष्ठित थे। उनका प्राणी की हत्या नहीं करना आसान है लेकिन किसी के जन्म ही जगत के कल्याण के लिए हआ था। दखी. प्रति द्वेष भाव पूरी तरह त्यागना कठिन है। अतः अहिंसा वद. आर्त प्राणियों के लिए वे करुणा से पर्ण थे. तथा भी कालान्तर में प्राणी हत्या नहीं करना, निराभिष भोजन उनका समग्र जीवन दूसरों के कष्ट लाघव करने तथा उन्हें त्याग आदि में ही परिवर्तित होकर रह जाती है। मैत्री मुक्ति प्रदान करने में ही बीता था। सुखी एवं पुण्यात्माओं भाव बढ़ाने को गौण महत्व मिलने लगता है। यही नहीं, के प्रति उनके मन में मुदिता एवं मैत्री का भाव था। वे साधना का नकारात्मक पक्ष प्रबल हो जाता है। दूसरों के उनके दर्शन करके आनन्दित होते थे तथा उनसे मैत्री कष्ट को लाघव करना भी अहिंसा का अंग है, यह बात स्थापित करते थे। केशव चन्द्रसेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर एवं गौण हो जाती है। अन्यान्य मनीषियों एवं सन्त पुरुषों के दर्शन करने वे स्वयं रामकृष्ण विवेकानन्द भावधारा में अहिंसा – वस्तुतः गए थे। दुष्टों के प्रति उनके हृदय में उपेक्षा का भाव था। सभी अवतारी महापुरुष प्रेम व अहिंसा को शाश्वत संदेश जिस ब्राह्मण पुजारी ने उन्हें लात से मारा था, उसे किसी के रूप में अपने जीवन द्वारा प्रदर्शित करने एवं उसका प्रकार हानि न हो, यह सोच कर उन्होंने उसकी बात उपदेश देने के लिए ही आते हैं। श्रीरामकृष्ण भी इसके श्रीमथुरनाथ विश्वास से नहीं कही। यहाँ तक कि श्रीरामकृष्ण अपवाद नहीं हैं। श्रीरामकृष्ण की जीवनी पढ़ने पर यह ने किसी की निन्दा तक नहीं की। प्रेम कभी दोष नहीं स्पष्ट हो जाता है कि वे एक ब्रह्मज्ञ पुरुष थे तथा अत्यन्त देखता। किसी की निन्दा करना अथवा उसके दोष देखना स्वाभाविक रूप से ब्रह्मात्मैकत्व में प्रतिष्ठित थे। अहिंसा के प्रेम का लक्षण नहीं बल्कि ईर्ष्या एवं स्वयं की उच्चाभिलाषा संदर्भ में वे पारमार्थिक अहिंसा में सर्वदा प्रतिष्ठित थे। __ का फल है। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि किसी का गले के कैन्सर से पीड़ित हो जब वे मुँह से कम खा पी रहे । दोष नहीं देखना चाहिए। थे तब भी उन्हें यह अनुभूति थी कि वे असंख्य भक्तों के भय अहिंसा का विरोधी है। अहिंसक सभी प्राणियों मुँह से खा रहे हैं। यह तभी संभव है जब वे समस्त को अभय प्रदान करता है और स्वयं भी सभी से निर्भय प्राणियों में स्वयं को अवस्थित देखें। एक बार उन्होंने हो जाता है क्योंकि उसकी यह मान्यता होती है कि सभी ३२ अहिंसा परमो धर्मः। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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