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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में डॉ. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' अष्ट कर्मों में नाम कर्म का छट्ठा स्थान है। डॉ. श्री फूलचंदजी जैन 'प्रेमी' ने नाम कर्म का स्वरूप उसकी उत्तर प्रकृतियाँ आदि का विवेचन बड़ी ही निष्ठा के साथ किया है। ट. कर्म सिद्धान्त के विषय में जितनी युक्तियुक्त वैज्ञानिक इसीलिए जैन एवं वेदान्त दर्शन का यही स्वर बारसूक्ष्म विवेचना जैन धर्म में की गई है वैसी अन्य किसी भी बार याद आता है कि हे आत्मन् । तेरी मुक्ति तेरे ही हाथ धर्म में नहीं है। अनेकान्तवाद, अहिंसा आदि सिद्धान्तों में है, तू ही बन्धन करनेवाला है और तू ही अपने को की तरह कर्म-सिद्धान्त भी जैन धर्म का अपना विशेष मुक्त करनेवाला भी हैमहत्वपूर्ण सिद्धान्त है। जैनधर्म की वैज्ञानिक धर्म के रूप स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते। में मान्यता या प्रसिद्धि में कर्म सिद्धान्त की वैज्ञानिकता स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते।। एक प्रमुख कारण है। कर्म क्या है? क्यों बंधते हैं? बंधने इसीलिए किसी एक को दूसरों के सुख-दुःख, जीवनके क्या-क्या कारण हैं? जीवन के साथ वे कब तक रहते मरण का कर्ता मानना अज्ञानता है। यदि ऐसा मान लिया हैं? वे क्या-क्या और किस प्रकार फल देते हैं? उनसे जाए तो फिर स्वयं शुभाशुभ कर्म निष्फल सिद्ध होंगे। मुक्ति कैसे प्राप्त होती है? विविध प्रश्नों का समाधान मात्र इस सन्दर्भ में आचार्य अमितगति का यह कथन स्मरणीय जैन धर्म में ही मिलता है। जैन कर्म सिद्धान्त इसलिए और भी महत्वपर्ण है कि स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । इसने ईश्वरादि परकर्तृत्व या साहित्कर्तृत्व के भ्रम को परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तदा।। तोड़कर प्रत्येक प्राणी को अपने पुरूषार्थ द्वारा उस अनन्त निजाजिर्तं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और किंञ्चन। अनन्त वीर्य) की प्राप्ति का मार्ग सहन और प्रशस्त किया विचारयन्नेवमनन्य मानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ।। है। वस्तुतः प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं स्रष्टा, इस तरह जैन कर्म सिद्धान्त दैववाद नहीं, अपितु स्वर्ग-नरक का निर्माता और स्वयं ही बंधन और मोक्ष को अध्यासवाद है क्योंकि इसमें दृश्यमान सभी अवस्थाओं प्राप्त करनेवाला है। इसमें ईश्वर आदि किसी अन्य माध्यम । को कर्मजन्य कहकर यह प्रतिपादन किया गया है कि को बीच में लाकर उसे कर्तृत्व मानना घोर मिथ्यात्व आत्मा अलग है और कमजन्य शरीर अलग है। इस भदबतलाया गया है। इसीलिए "बज्झिज्जत्ति त्तिउद्विज्जा बंधणं विज्ञान का सर्वोच्च उपदेष्टा होने के कारण जैन कर्मसिद्धान्त परिजाणिया" - आगम का यह वाक्य स्मरणीय है जिसमें अध्यात्मवाद का ही दूसरा नाम सिद्ध होता है। कहा गया है कि बंधन को समझो और तोड़ो, तुम्हारी कर्म विषयक साहित्य अनन्तशक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देशी भाषाओं जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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