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________________ जैन संस्कृति का आलोक सामाजिक समरसता के प्रणेता तीर्थंकर महावीर डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन भगवान् महावीर ने जिस समतादर्शन का प्रवर्तन किया वह आज सामाजिक समरसता का प्रतीक बन सकता है, बशर्ते कि उसको हम जीवन में आचारित करे। मानसिक द्वन्द, साम्प्रदायिक वेदना, धर्मान्धता, रूढ़िवाद, जातिगत भेदभाव आदि सभी समता दर्शन में अन्तर्धान हो सकते हैं तथा राष्ट समाज एवं जन-जन में मैत्री. सर्वधर्म समभाव, करूणा आदि सदगणों का प्रस्फुटन हो सकता है। श्रीमती डॉ. मुन्नी पुष्पा जैन ने तीर्थंकर महावीर के समतादर्शन का सुंदर एवं वैचारिक विश्लेषण किया है, इस रचना में। - सम्पादक जीवनशैली का मूलमंत्र : समता जैनधर्म के चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर ने विश्वशान्ति, विश्वबंधुत्व और सर्वोदय के क्षेत्र में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह जैसे मूलभूत सिद्धान्तों का आदर्श स्थापित कर विश्वबन्धुत्व, समानता, एकता, समन्वय, प्रेम और “समता" जैसे जीवन मूल्यों का विकास किया। इन मूल्यों में ही सामाजिक समरसता का भाव निहित है। विश्व की समग्र जाति सभ्यता-विकास के साथ-साथ जीवन मूल्यों को "धर्म" के नाम से प्रतिष्ठित करती रही है। सभ्यता और संस्कृति के साथ विभिन्न धर्मों के विचार विभिन्न दर्शनों में ढलते गये और अनेक धर्म-सम्प्रदायों का जन्म और विकास हुआ। विचारभेदों के कारण इनमें परस्पर संघर्ष, कटुता, विद्रोह का बोलबाला होता गया। वैसे तो हर धर्म, सम्प्रदाय अपने-अपने ढंग से "धर्म" की परिभाषा करते हैं, परन्तु मानवता की गरिमा के साथ जीवन-यापन, श्रेष्ठ जीवनशैली का अनुपम मूलमंत्र महावीर ने “समता” सिद्धान्त के रूप में हमें दिया है। महावीर के समय में विषमता अनेक स्तरों पर थी। अनुपयुक्त एवं अनर्थकारी कार्यों को रोकने के लिए उनका विरोध करना भी आवश्यक होता है। बेशक इसमें अनेकों मुसीबतों का सामना करना होता है, क्योंकि क्रांतियाँ सरल नहीं होतीं, चाहे वे देश की स्वतन्त्रता के लिए हो या फिर समाज में प्रचलित घातक पाखण्डों या कुरीतियों के प्रति हों। महावीर ने उस समय समाज की अनेक विषमताओं के बीच समन्वयवाद की क्रान्ति की और समता का बिगुल बजाकर साम्प्रदायिक सद्भाव और विश्वबंधुत्व के लिए सामाजिक समरसता का जो मार्ग प्रतिपादित किया, उसकी आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है। समता : सामाजिक समरसता वस्तुत : आज के संक्रमणकालीन, साम्प्रदायिक वेदना तुल्य अस्त-व्यस्त जीवन में भगवान महावीर का समता सिद्धान्त अत्यंत महत्वपूर्ण है। महावीर के उपदेशों ने किसी एक मत या सम्प्रदाय के लिए कट्टरता का कभी प्रतिपादन नहीं किया, वरन् धर्मान्धता और रुढ़िवाद के विरोध में समता सिद्धान्त का उद्घोष किया - जो मानवतावाद और समाजवाद की एकता तथा विकास में समग्र रूप से समर्थ है। जो लोग समता धर्म की उपेक्षा करते हैं और बाह्य आवरणों-जातिवाद, भाषावाद, रंगभेद आदि भिन्नताओं में उलझते तथा परस्पर झगड़ते रहते हैं, उन्होंने धर्म के मूल तत्त्व समता, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व जैसे सिद्धांतों पर साम्प्रदायिकता की धूल (परत) चढ़ाकर उसे धूमिल कर रखा है। महावीर ने कहा- "बाह्य आवरणों से समानता को नहीं मापा जा सकता। यद्यपि हम लोग शरीर, मस्तिष्क, प्रवृत्ति, बुद्धि रुचियों, भाषा, रंग-रूप आदि विभिन्नताओं के होते हुये भी आत्मिक धरातल पर यानि उस आत्मिक धरातल पर जो हमारे अस्तित्व का मूल | सामाजिक समरसता के प्रणेता तीर्थंकर महावीर २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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