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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
आधार है, हम लोग परस्पर समान है। महावीर ने कहा- मनुष्य जन्म से नहीं “कर्म" से महान् बनता है। जन्म से। कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं होता - ___ “कम्मुणा बम्भणो होई कम्मुणा होई खत्तिओ।" । समता का विकास कब?
अगर मानव समता सिद्धान्त के अनुसार जीवन के क्रियाकलाप करेगा तो वह अधिक अन्तर्मुखी और विश्वव्यापी होगा तथा एकता, समानता, सह-अस्तित्व, मैत्री, प्रेम जैसी अनुकूलताओं का विकास कर सम्पूर्ण समरसता की ओर अग्रसर होगा। समता का विकास तभी हो सकता है जब मन, वचन और काय से हम अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह सिद्धान्तों पर अमल करें।
'अहिंसा' मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से सभी प्राणियों के प्रति मैत्री का भाव है, जिसमें करुणा, दया, परोपकार, प्रेम जैसे गुणों का निवास होता है। भगवान् महावीर ने कहा – “मित्ती मे। सव्व भूएसु"- अर्थात् मेरी सभी प्राणियों से मैत्री है। उनकी शिक्षा है - सभी प्राणियों को समान समझना चाहिये, इसी में अहिंसा और समता निहित है --
समया सव्व भएसु सत्तु मित्तेसु वा जगे। पाणाइवाय विरई जावज्जीवाए दुक्करं । ।
भगवान् महावीर ने अनेकान्त का आदर्श देकर मानवतावाद की जड़ें मजबूत की है। विचारों की टकराहट से ही विभिन्न धर्मों में परस्पर द्वेष पैदा किया जाता रहा है, जिससे इतिहास में अनेकों लड़ाईयाँ लड़ी गई और निर्दोष, निर्बलों तथा अनेकानेक प्राणियों को उसका शिकार होना पड़ा। भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टिकोण द्वारा इसका समाधान किया। उन्होंने कहा - "मैं जो जानता हूँ वही सत्य है, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है” - ऐसी भावना अहंकार को जन्म देती है। जो स्व के लिए तथा मानव समाज के लिए भी घातक है। महावीर ने कहा सत्य एक है, परन्तु
उसके महलू अनेक हैं। एक बार में एक ही पहलू को जाना जा सकता अथवा देखा जा सकता है जो पूर्ण सत्य न होकर सत्य का एक अंश होता है। अतः सभी की दृष्टि में अलग-अलग सत्यांश की अनुभूति होती है, इसलिए अपना मत (पक्ष) दूसरों पर थोपना नहीं चाहिये, बल्कि परस्पर एक दूसरे को समझने का प्रयास करना ही अनेकान्त है। इससे समन्वय और समता को बल मिलता है। समता बनाम आर्थिक समानता
सामाजिक समता के साथ आर्थिक समानता के लिए महावीर ने अपरिग्रह सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। महावीर ने कहा - वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था। दीवप्पणट्टेव अणंत मोहे, नेयाउयं टुमदट्ठमेव ।।
अर्थात् “व्यवहार में जीवन चलाने के लिए धन आवश्यक है, उसके बिना जीवन नहीं चलता। मैं उसके उपार्जन को बुरा नहीं मानता, किन्तु आवश्यकता से अधिक संचय वास्तव में विष है / अन्याय है।"
मानव की महानता उसके आचरण से मापी जाती है न कि धन से। धन की अधिकता से भोग विलासिता की ओर ही प्रवृत्ति होती है और यह तृष्णा अपरिग्रहवाद से ही संयमित की जा सकती है। अपरिग्रह के सिद्धान्त से प्रभावित होकर मगधदेश के सबसे बड़े धनी आनन्द सेठ ने 'परिग्रह-परिमाण', व्रत को स्वीकार किया तथा अतिरिक्त आय को वह प्रतिवर्ष गरीबों में वितरित कर महादानी प्रसिद्ध हो गया। यही तो था उसका समता की ओर पहला कदम । समता में अन्तर्निहित : नारी समानता
इसी तरह अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह तथा समता सिद्धान्त से साम्प्रदायिक विषमता को भी दूर किया जा सकता है।
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सामाजिक समरसता के प्रणेता तीर्थंकर महावीर |
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