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________________ जैन संस्कृति का आलोक निन्दा में तेरह पाप हैं - आज जैन समाज राग, द्वेष, कलह, फूट-फजीता में बदनाम हो चुका है। अपनी हजारों वर्षों की प्रतिष्ठा खो रहा है। तीर्थों के झगड़े, स्थानकों व उपाश्रयों के झगड़े, 1 संस्थाओं के झगड़े और इससे भी आगे साधु-साधु में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता। एक दूसरे की यश-कीर्ति सुनकर जलना, एक दूसरे की सफलता और सम्मान देखकर छाती पीटना और उनकी निन्दा करना। उनके चरित्र पर अवांछनीय लांछन लगाना। कितना नीचे गिर गया है हमारा समाज। अपने उदार सिद्धान्तों से पतित हो गया है। मुझे बहुत पीड़ा होती है, यह देखकर । एक तो यह छोटा-सा समाज है। करोड़ों के सामने लाखों की संख्या में ही है और वह भी इतने टुकड़ों में बंटा है। बंटा है तो भी कोई बात नहीं, परन्तु एक-दूसरे को नीचा दिखाने में, एक-दसरे की टांग खींचने में एक-दसरे की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने में ही अपनी शक्ति, समय और धन की बर्बादी कर रहा है। और बात केवल धन की बर्बादी की नहीं है, अपनी आत्मा को कलुषित, पतित कर रहा है। परम श्रद्धेय आचार्यश्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. फरमाते थे- एक दूसरे की निन्दा, आलोचना और छींटाकशी करना महापाप है। निन्दक, अठारह पापों में तेरह पापों का भागी होता है। यानी दूसरों की निन्दा, चुगली, आलोचना, दोषारोपण करने वाला तेरह पापों का सेवन करता है। पाप के अठारह भेद में से तेरह भेद निन्दा के साथ जुड़े हैं । * इसलिए यह महापाप है। अस्तु, आज संगठन की, एकता की बहुत जरूरत है। आज की दुनिया में जो संगठित है वही शक्ति सम्पन्न है। शुक्ल यजुर्वेद में एक मंत्र है - अनाधृष्टाः सीदतः सहौजसः। जो संगठित हैं, परस्पर प्रेम सूत्र में बंधे हैं, उन्हें कोई भी महाबली परास्त नहीं कर सकता। उन्हें कोई भी शक्ति भयभीत नहीं कर सकती। आज जैन संस्कृति, जैनधर्म और श्रमणों व श्रावकों पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहे हैं। उन्हें स्थान-स्थान पर प्रताड़ित, भयभीत करने का प्रयास हो रहा है। जैन मन्दिरों को, जैन मर्तियों को विध्वंस किया जा रहा है। उन पर आक्रमण किये जा रहे हैं। जैन साध-साध्वियों पर कई बार कई स्थानों पर बर्बर आक्रमण हुए हैं और इतना बड़ा साधन-संपन्न, बुद्धि-संपन्न जैन समाज एक हीनसत्व पुरुष की तरह यह सब देखता है। बिल्ली जब एक कबूतर पर झपटती है तो दूसरे कबूतर अपनी गर्दन नीची कर लेते हैं। सोचते हैं, यह उस पर झपट रही है, हम पर नहीं। हम सुरक्षित हैं। क्या आज ऐसी स्थिति नहीं है? सम्पूर्ण जैन संस्कृति पर आक्रमण हो रहे हैं। यदि अपनी संस्कृति और अपनी महान् दार्शनिक धरोहर की रक्षा करनी है तो जैन समाज को एकता के सूत्र में बंधना ही पड़ेगा। संगठित हुए बिना वह अपनी अस्मिता की रक्षा नहीं कर सकेगा। अपना अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं रख पायेगा। एकता के पाँच सूत्र मैं विस्तार में नहीं जाकर एकता की पष्ठभमि के रूप में एक पांच सत्री योजना आपके सामने रख रहा हूँ। आप सोचें, आपको मैं नहीं कहता अपनी संप्रदाय छोड़ दो, आम्नाय छोड़ दो, अपनी मान्यताएं त्याग दो। अपनी गुरु परम्परा को भुलाने की बात भी नहीं करता हूँ। आप जहाँ हैं, जिस परम्परा में हैं, वहाँ रहें परन्तु शान से रहें, ★ निंदा करनेवाला - १. मृषावाद बोलता है। २. क्रोध, ३. मान, ४. माया, ५. लोभ, ६. राग, ७. द्वेष, ८. कलह, ६. अभ्याख्यान, १०. पैशुन्य, ११. पर परिवाद, १२. माया मृषा और १३. मिथ्यादर्शन शल्य रूप इन तेरह पापों का भागी होता है - निन्दक। | जैन एकता : आधार और विस्तार १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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