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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि एक बार जब श्रावस्ती नगरी में पधारे हैं, उनके शिष्य थे। विनय और प्रेम के महाप्रवाह थे। यद्यपि गौतम नगर में भिक्षा के लिए जाते हैं और वहाँ देखते हैं कि स्वामी भगवान् महावीर के गणधर थे। पूरे संघ में सबसे उनके जैसे ही श्रमण जिनके वस्त्र रंग-बिरंगे हैं, नगर में। ज्येष्ठ और घोर तपस्वी, महाज्ञानी थे। जबकि केशीकुमार भिक्षा के लिए घूम रहे हैं। गौतम-शिष्यों को आश्चर्य । श्रमण भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के एक अंतिम होता है, उनसे मिलते हैं, पूछते हैं - आप कौन हैं ? प्रतिनिधि आचार्य मात्र थे। पद की दृष्टि से गौतम ज्येष्ठ वे श्रमण कहते हैं - हम भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य थे, ज्ञान की दृष्टि से भी, साधना की दृष्टि से भी वे उत्कृष्ट केशीकुमार श्रमण के शिष्य हैं। उनको आश्चर्य होता है, थे। परन्तु जहाँ प्रेम और सरलता होती है, वहाँ बड़े-छोटे का भेद उभरता ही नहीं। बड़े-छोटे का विचार भी संकीर्ण जब हम सब निर्ग्रन्थ हैं, एक ही मोक्ष मार्ग के पथिक हैं तो और छोटे मन की उपज है। गौतम कहते हैं- वे भगवान् फिर यों अलग-अलग क्यों हैं? क्या बात है जो हमें एक पार्श्वनाथ के शिष्य हैं। हमारी निर्ग्रन्थ कुल परम्परा में दूसरे से दूर किये हुए हैं। बड़े हैं। हम ही उनके पास जायेंगे। उनसे मिलेंगे और महान् ज्ञानी गौतम स्वामी शिष्यों को बताते हैं - परस्पर बातचीत करके सभी मतभेदों को दूर कर एक हो भगवान् पार्श्वनाथ का धर्म चातुर्याम धर्म है। भगवान् जायेंगे। महावीर का धर्म पंचयाम धर्म है। बस, ऐसे ही कुछ छोटे एकता के लिए यह है - त्याग ! एकता व संगठन छोटे मतभेद हैं जिनके कारण हम अलग-अलग हैं किन्तु हमेशा त्याग चाहता है / बलिदान चाहता है। जब तक अब हमें परस्पर मिलकर इन मतभेदों को सुलझाना है आप अपने अहंकारों का त्याग नहीं करेंगे। अपने छोटेऔर दोनों ही श्रमण परम्पराओं को मिलकर एक धारा छोटे स्वार्थ नहीं छोड़ेंगे तब तक एकता का स्वप्न पूरा नहीं बन जाना है। छोटी-छोटी धारा, धारा होती है किन्तु जब होगा। गौतम और केशी स्वामी का इतना प्रेरक और उच्च सब धाराएं मिल जाती हैं तब प्रवाह बन जाता है, नदी उदाहरण हमें मार्गदर्शन करता है, प्रेरणा देता है कि यदि बन जाती है और नदी समुद्र बन जाती है। अलग-अलग एकता और संगठन चाहते हैं तो अपना अहंकार छोड़ो, बिखरे तिनके कचरा कहलाते हैं। किन्तु सब तिनके स्वार्थ छोड़ो; शिष्यों का मोह छोड़ो। पदों की लालसा छोड़ो मिलकर झाडू बन जाता है तो वही तिनके कचरा बुहारने और दूध-चीनी की तरह मिल जाओ। दूध-पानी की तरह और सफाई करने का साधन हो जाता है। नहीं, जो दूध का मोल गिरा दे, मिलो तो ऐसे मिलो ज्यों लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े अलग-अलग स्थानों पर दूध में मिश्री। प्रेम से मिलो ! सद्भाव बढ़ाओ। पड़े जल रहे हैं, उनसे धुंआं निकल रहा है। वातावरण आप सब जैन हैं, भाई-भाई हैं, स्वधर्मी हैं। आपके दूषित हो रहा है, परन्तु जब सब जलती लकड़ियाँ एकत्र शास्त्रों में स्वधर्मी-प्रेम, स्वधर्मी-सहायता की बड़ी-बड़ी महिमा हो जाती हैं तो वही महाज्वाला बन जाती है। उस बताई हैं। आपने भी सुनी है, स्वधर्मी बंधु की सेवा करना महाज्वाला का सामना करने की शक्ति किसी में नहीं है। महान् पुण्य का कार्य है। परन्तु जान-बूझकर भी फिर आप तो गौतम स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं - हमें केशीकुमार भाई-भाई क्यों लड़ते हैं ? क्यों एक दूसरे की निन्दा करते श्रमण से मिलना चाहिए। प्रश्न खड़ा होता है, पहले कौन हैं? क्यों एक दूसरे के चरित्र पर कीचड़ उछालते हैं? मिले? एकता और संगठन तो चाहिए, किंतु पहल कौन सोचिए, यदि कोई आप पर कीचड़ उछालता है तो आपके करें ? जब बडप्पन का प्रश्न आ जाता है तो पांव वहीं ऊपर उसके छीटे लगें या न लगें किन्तु हाथ तो गंदे होंगे चिपक जाते हैं; किन्तु गौतम गणधर सरलता के देवता ही। कीचड़ उछालने वाला सदा घाटे में रहता है। जैन एकता : आधार और विस्तार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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