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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि ___ जरा चिन्तन कीजिए। घर पर एकान्त नहीं मिलता तो स्थानक में आकर चिन्तन कीजिए। सोचिए कि यह यह अमूल्य जीवन क्या यों ही खो देने के लिए है। मैं आपको साधु बनने का पाठ नहीं पढ़ा रहा हूँ। मात्र आत्मचिन्तन के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। थोड़ा समय अपने लिए भी निकालिए। बाहर बहुत भटक लिए हैं। अन्य के लिए बहुत श्रम कर लिया है। थोड़ा श्रम अपने लिए भी कीजिए। अपने आत्मदेव की आराधना भी कीजिए। पर ऐसा तभी होगा जब आप ममत्व ग्रन्थियों को क्षीण करेंगे। ममत्व को क्षीण करके आप आत्मराधना करेंगे तो आपको पश्चात्ताप नहीं करना पड़ेगा। ... ज्ञानी और अज्ञानी समझू शंके पाप से, अणसमझू हरषंत । वे लूखा वे चीकणा, इम विध कर्म धंत।। जो ज्ञाता है, जानने वाला है वह पाप करने में संकोच करेगा। उसे शंका आएगी कि मैं करूं तो लोग क्या कहेंगे। क्या यह कर्म मेरे करने योग्य है। सौ बार शंका करेगा वह। पाप करने से पहले और करते हुए उसका हृदय कांपता रहेगा। लेकिन जिसे पुण्य पाप का ज्ञान ही नहीं है वह सप्रसन्न चित्त से पाप करता रहेगा। वह सशंक न होगा। जो ज्ञानी है, उसे बुरा काम करना भी पड़े तो वह विवशता और लाचारी में करता है। इससे उसका कर्मबंध हल्का होता है। जो अज्ञानावस्था में पाप करते हैं उनके कर्म चिकने वंधते हैं। वहां कषायों की तीव्रता होती है। विवेक और विचार का पूर्णरूप से अभाव होता है। इसलिए ज्ञानी और अज्ञानी समान कर्म करते हुए भी असमान कर्मबन्ध करते हैं। ज्ञानी की आत्मा पर पड़ने वाले बन्धन अत्यन्त हल्के होते हैं और अज्ञानी की आत्मा पर पड़ने वाले वन्धन सघन और चिकने होते हैं। ... स्वयं पर भरोसा "जब आत्म पर विश्वास नहीं, परमात्म पर कैसे लाओगे। यों ही सम्भ्रात बने रहकर, जग में ठोकर खाओगे।।" जब हमें अपनी आत्मा पर ही भरोसा नहीं है तो हम परमात्मा पर भरोसा कैसे करेंगे। “अप्पा सो परमप्पा" अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा पर भरोसा करने का तात्पर्य है परमात्मा पर भरोसा करना। पर हम स्वयं प्रथम हैं। आत्मा प्रथम है। परमात्मा पश्चात् है। इस क्षण हम आत्मा हैं, परमात्मा नहीं है। अतः पहले अपनी आत्मा पर भरोसा कीजिए, परमात्मा पर स्वतः ही भरोसा हो जाएगा। __ हम परमात्मा को पुकारते हैं। मालाएं जपते हैं, मंदिरों में पूजा करते हैं। ऐसा करते करते हम वृद्ध हो जाते हैं। विदायगी का क्षण आ जाता है, पर परमात्मा की एक झलक हमें नहीं मिल पाती है। इससे तो यह सिद्ध हुआ कि या तो आपकी पुकार झूठी थी था फिर परमात्मा झूठा था। इस पर आप चिन्तन कीजिए। परमात्मा झूठ नहीं हो सकता है। आपने पुकारा है यह भी असत्य नहीं है। आप मालाएं जपते रहे हैं..... घिसी हुई माला इसका प्रमाण है। पर परमात्मा की एक अनुभूति का एक क्षण आपके जीवन में प्रगट न हुआ। भूल कहां हुई? भूल हुई है। वह भूल प्रारंभ में ही हो गई। हमने स्वयं को विस्मृत कर दिया। अपनी आत्मा पर भरोसा किया ही नहीं। परमात्मा को पुकारते रहे। ऐसे परमात्मा नहीं मिल सकता। ऐसा भरोसा मिथ्या भरोसा है। मिथ्यात्व है। श्रद्धा स्वयं से शुरू होती है। जो स्वयं पर श्रद्धा करता है भरोसा करता है उसके जीवन में परमात्मा अवश्य ६० प्रवचन-पीयूष-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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