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________________ अपनी सुख-सुविधाओं के व्यापकीकरण के लिए वस्तुओं का उपयोग और संचय कर रहे हैं । यहीं पर हमारे आदर्श और यथार्थ में वैभिन्य उत्पन्न होता है। हम जैन हैं, परम्परागत जैन हैं। न जाने कितनी पीढ़ियों से हम जैन धर्म ग्रन्थों को सुनते आए हैं, तीर्थंकर भगवन्तों को मानते आए हैं। उनकी पूजा करते आए हैं । तप, त्याग हमारे घरों में होता रहा है । हमने सदियों से त्याग की महिमा सुनी है । 'त्याग' को हमने जीवन का सर्वोच्च श्रेयस् माना है। पर क्या कारण है कि हमारे जीवन में भोग के प्रति सदैव गहरा आकर्षण बना रहा है ? मैं समझता हूँ कि भोगोपभोग के प्रति जितना गहनतम आकर्षण हमारी समाज में है उतना अन्य समाजों में नहीं है। हम प्रशंसा त्याग की करते हैं पर अहर्निश संचय में संलग्न रहते हैं । हमारे धर्मग्रन्थों में परिग्रह और महापरिग्रह को नरक का कारण माना गया है। इस वाणी को हम बचपन से सुनते आए हैं। संभव है स्वयं भी ऐसा बोलते होंगे पर फिर भी हम परिग्रह को और विस्तृत करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं । करनी और कथनी का यह अन्तर क्यों ? मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण हमारी अश्रद्धा है । हम मात्र सुनते हैं पर उस पर हमारी श्रद्धा नहीं जमी है। हम जैन वंश में तो पैदा हुए हैं पर जैनत्व हमारे भीतर पैदा नहीं हुआ है। जैनत्व का दीप जब तक हमारे भीतर नहीं जलेगा तब तक हमारी कथनी और करनी की विभिन्नता नहीं रहेगी । हमारे सिद्धान्तों और यथार्थ में पूर्व-पश्चिम की दूरियां विद्यमान रहेंगी। ••• अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा.....! अनु + प्रेक्षा = अर्थात् गहराई से चिन्तन करना ! सूक्ष्मता से मनन करना। अनुप्रेक्षा शब्द अत्मचिन्तन प्रवचन - पीयूष कण Jain Education International प्रवचन - पीयूष-कण के रूप में अभिहित हुआ है । आपने जो सुना है, गुरु से जो वाचना ली है, जिसे बार-बार दोहराया है उस पर चिन्तन-मनन करना अनुप्रेक्षा है । कर्म मुक्त होने के लिए अनुप्रेक्षा अपरिहार्य है । शास्त्रों को सुन लेना पर्याप्त नहीं है । उन पर प्रश्नोत्तर करना और सन्तुष्ट हो जाना भी पर्याप्त नहीं है। उन्हें बार बार दोहरा लेना भी पर्याप्त नहीं है। जो सुना, पढ़ा अथवा दोहराया गया है उस पर अपना अनुचिन्तन अपरिहार्य है । आपका स्वयं का मनन प्रथम शर्त है। तब ही आपके कर्मक्षय होंगे। आप परित्त संसारी होंगे । मुनि और श्रावक मुनि कौन है ? जो हिंसा को भली प्रकार से जानता है और जानने के बाद न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरे से हिंसा करवाता है और न हिंसा करते हुए को भला समझता । वही परिज्ञात कर्मा है, वही मुनि है । मुनि तीन करण और तीन योगों से हिंसा का त्यागी होता है । मुनि से परे भी एक जीवन है, वह श्रावक का जीवन है । वह सद्गृहस्थ जो श्रद्धावान् है, धर्म श्रवण करता है, देव-गुरु-धर्म के प्रति जो आस्थावान् रहता है वह श्रावक कहलाता है। श्रावक तीन करण और तीन योग से हिंसा से मुक्त नहीं हो पाता है। वह दो करण और तीन योग से हिंसा का त्याग करता है। क्योंकि वह गृहस्थ 1 समग्ररूपेण हिंसा का त्याग उससे संभव नहीं है । अनेक दायित्व उसके कन्धों पर हैं। परिवार का दायित्व, समाज का दायित्व, प्रदेश का दायित्व वह अनेकानेक दायित्वों का संवहन करता है इसलिए पूर्णहिंसा का वह त्याग नहीं कर पाता है । सहिष्णुता आध्यात्मिक जीवन में ही नहीं व्यावहारिक जीवन में भी यह बहुत आवश्यक है कि हम सहिष्णु बनें। अगर For Private & Personal Use Only ४७ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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