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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
है वे आगे बढ़ सकते हैं, बढ़ते भी हैं । एक कहावत है“हिम्मत - ए मर्द, मर्दे खुदा"
आदमी के पास हिम्मत होनी चाहिए। साहस होना चाहिए । हिम्मत और साहस हों तो कोई भी शक्ति उस पर हावी नहीं हो सकती है । पर हमारे भीतर साहस की बहुत बड़ी कमी है। इसी के कारण हम नुकशान उठा रहे हैं, पिछड़ रहे हैं। वासनाएं हमें अपना गुलाम बना लेती हैं । अहंकार, छल, कपट, लोभ हमें कदम-कदम पर दबाते रहते हैं । इनका निराकरण करना चाहिए। हमें इनसे हारना नहीं है बल्कि इन्हें हराना है । इन्हें हराने के लिए साहस की आवश्यकता है । सम्यक् साहस चाहिए ।
वासना, अहंकार आदि सभी में है। उसकी मात्रा न्यूनाधिक हो सकती है। अगर कोई दावा करे कि उसमें ये नहीं है तो वह गलत दावा कर रहा है। जीवन व्यवहार से सबका पता चल जाता है । जीवन व्यवहार मनुष्य के अन्तर्जीवन का दर्पण है । जो उसके भीतर है वह उस व्यवहार में अवश्य ही झलक उठता है ।
हमें वासना से मुक्त होना है । क्रोध से, अहंकार और कपट से मुक्त होना है । हमारे कषाय हमें बर्बाद न करें ऐसा उपाय करना है । यहीं रहकर, इसी संसार में रहकर यह उपक्रम करना है। इसका उपाय है - सबसे पहले हम अपने मन पर विजय पाएं। पर दुर्बल व्यक्ति मन को नहीं जीत सकता है। इसलिए मैंने कहा कि जीवन में साहस का होना अनिवार्य है । साहस होगा तो दुर्बलताएं स्वयं विलीन हो जाएगी। मन को हम अपने वश में करने में समर्थ हो जाएंगे। इसी से काम, क्रोध, अहंकार तथा समस्त वासनाएं स्वतः जीत ली जाएंगी। ...
त्याग : आत्म अहसान है
त्याग की बात आती है तो हम दूर भागते हैं । छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं। जरा सोचिए ! किसके
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लिए छोड़ना है । क्या साधु के लिए? या धर्म के लिए? नहीं, साधु के लिए नहीं छोड़ना है, साध्वी के लिए नहीं छोड़ना है। अपने लिए छोड़ना है। आत्मकल्याण के लिए त्याग करना है । हमारी आत्मा में पदार्थ के प्रति आकर्षण का जो राग पैदा हो गया है उसके परिमार्जन के लिए छोड़ना है।
जो स्वयं के लिए कुछ नहीं कर पाता, आत्मकल्याण के लिए कुछ नहीं कर पाता है वह दूसरों के लिए क्या कर पाएगा? पर यह विडम्बना है कि हम स्वयं पंकासन्न होते हुए दूसरों को पंकमुक्त करने का प्रयत्न करते हैं । स्वयं साश्रु होते हुए दूसरों के आंसू पोंछने का कार्य करना चाहते हैं ।
यह संभव नहीं है।
पहले स्वयं अश्रुमुक्त बनिए तब ही किसी के आंसू आप पोंछ पाएंगे।
आप त्याग करते हैं। किसी पर आपका यह अहसान नहीं है। यह आपका अपने आप पर अहसान है । ••
सुसंस्कार अमूल्य निधि
जिस गति से आज हम बदल रहे हैं, इसको अगर विराम नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं है जब हमारी भाषा, हमारा रहन-सहन, हमारी संस्कृति सब कुछ समाप्त हो जाएगा। हम क्या हो गए, स्वयं नहीं पहचान पाएंगे।
अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखिए। संस्कृति सुरक्षित रहेगी तो आपके संस्कार भी सुरक्षित रहेंगे। सुसंस्कार आपकी अमूल्य निधि है । उसे बचा कर रखिए । ••
सिद्धान्त और यथार्थ में दूरियां क्यों ?
आज हम वस्तु के आधार पर जी रहे हैं। जीवन यापन के लिए वस्तु को ग्रहण नहीं कर रहे हैं अपितु
प्रवचन - पीयूष-कण
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