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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि श्री ने आपको ही इस योग्य समझा और सम्मेलन के | जी म.सा. के छोटे शिष्य उपाध्याय श्री मनोहर मुनि जी संचालन हेतु 'शान्ति रक्षक' का पद प्रदान किया। आपने म. कहा करते थे कि दीक्षा लेने के बाद तो कोई भी भी कुशलता के साथ दायित्वों का परिपालन करते हुए | पूज्यनीय बन जाता है। उसे पूजा प्रतिष्ठा से ही फुरसत सम्मेलन का संचालन किया और पूर्ण शान्ति के साथ उस | नहीं मिलती। कुछ समय साधु-संतों की सेवा में लग जाता महासम्मेलन को सुसम्पन्न करने में यशस्विता प्राप्त की। है। इसलिए वैराग्यावस्था ही ज्ञानार्जन की एक मात्र किसी संत को शिकायत का मौका नहीं दिया। जो बात साधना है। इस सूत्र को मैंने समझा और आप श्री के आपको मान्य नहीं थी उसे इस प्रकार से समझाया कि चरणों में रहकर यथा संभव सीखने का प्रयास किया। इस किसी को यह महसूस नहीं होने दिया कि हमारी बात नहीं गुरु-ऋण से मैं कभी उऋण हो सकूँगा? मेरे जीवन का हर मानी गई है। यह भी कला है, इसी योग्यता को देखते क्षण आप श्री जी की सेवा में व्यतीत हो । एक क्षण भी हुए आचार्यश्री ने आपको श्रमणसंघ के सलाहकार पद से आप श्री से अलग होने का अवसर न मिले। मैं तपस्या भी करता हूँ - स्वाध्याय भी करता हूँ परन्तु करता उतनी सम्मानित किया। आप काम के लिए काम करते हैं, नाम ही हूँ जिससे आपकी सेवा में बाधा न पड़े। के लिए नहीं। आप अक्सर व्याख्यानों में कहा करते हैं"काम के लिए काम करो नाम के लिए नहीं। नाम तो तो पूज्य गुरुदेव की छत्र-छाया मुझपर सदैव बनी रहे। स्वतः ही हो जाएगा।" आप समाज में कुछ परिवर्तन मैं आपकी दीर्घायु की कामना करता हूँ। देखना चाहते हैं। आपका यही प्रयास रहता है कि हमारी आनेवाली युवापीढ़ी धर्म के प्रति आस्थावान बनें। जीवन 0 मुनि सुमंतभद्र “साधक" (शिष्य) को सुचारु रूप से चलाने के लिए आस्था एवं सम्यक्त्व "जैन सि.विशारद" की अत्यंत आवश्यकता है। आपके जीवन में जैनधर्म के प्रति कितनी अटूट (कुछ कर गुजरने की तमन्ना) श्रद्धा है। आप की कथनी और करनी में एकरूपता है। जैसा आपका नाम सुमन है वैसा ही सु-मन भी हैं। इस मनुष्य लोक में अनंतानंत जीव आते हैं, आयु जिसका मन अच्छा होता है उसका आचार, विचार और समाप्त होने पर चले जाते हैं। किसी को पता भी नहीं चरित्र भी अच्छा होता है। चलता कि कौन कब आया और कब चला गया। धर्म की आराधना-साधना के बिना ही मनुष्य जन्म गँवाकर आपका जीवन कितना महान है। आपकी सेवा में | संसार के गहरे समुद्र में डूब जाते हैं। यहां से निकलना मेरा सारा जीवन अर्पित हो यही मेरी भावना है। किस अति दुष्कर हो जाता है। मनुष्य जन्म का प्राप्त होना बड़े प्रकार से भटकते हुए मेरे जीवन को आप श्री ने संभाला | फ़क्र की बात है क्योंकि यह बहुत भाग्य से ही मिलता है। जैसे एक कुशल कुंभकार पैरों से रौंदी हुई मिट्टी को | है। कहा भी है - घड़े के रूप में बदल देता है और वही मिट्टी घड़े के रूप मनुष्य जन्म का पाना, कोई बच्चों वाला खेल नहीं। में ढ़ल कर व्यक्ति के सिर पर चढ़ जाती है। मैंने कई | जन्म-जन्म के शुभ कर्मों का, होता जब तक मेल नहीं।। वर्षों तक वैरागी अवस्था में रहते हुए कुछ ज्ञान सीखने | नरतन पाने के लिए उत्तम कर्म कमाया कर। का प्रयास किया है। परम श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम | मन मन्दिर में गाफिले, झाडू रोज लगाया कर।। |१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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