________________
सुमन साहित्य : एक अवलोकन
१०. दीर्घ दृष्टि - गृहस्थ लम्बी सूझ रखें। इससे उसका सज्झाय, स्वरूप चिन्तन, अमूल्य तत्व-विचार, मेरी भावना जीवन उलझन से बच जाता है।
व बारह भावना दी है तथा गद्य विभाग में छब्बीस बोल, ११. विशेषज्ञ – गृहस्थ कार्य-अकार्य, करणीय-अकरणीय, संथारा अतिचार आदि, आठ दर्शनाचार आदि दिया है। स्व-पर आदि की निपुणता रखें।
इस प्रकार श्रावक जीवन के बारे में सभी प्रकार की इस प्रकार के कुल ३५ उत्तम गुणों का वर्णन धर्म उत्तम सामग्री एक ही ग्रन्थ में मिल जाती हैं। बिन्दु ग्रथ में बतलाया गया है। आज के युग में इन गुणों विद्वान् लेखक ने इस ग्रन्थ में मार्गानुसारी के ३५ का पालन करना कितना आवश्यक है यह हम सब समझ गण, श्रावक के २१ गण, श्रावक की विशिष्ट साधना के सकते हैं।
२१ नियम, अमूल्य तत्व विचार, बारह भावना, चौदह चार विभाग -
नियम, छब्बीस बोल, श्रावक की दिनचर्या, भाषा - विवेक, प्रस्तुत पुस्तक में चार विभाग है -- श्रावक-स्वरूप, १५ कर्मादान, १८ पाप इत्यादि का विस्तृत विवेचन श्रावक द्वारा परिहार्य, श्रावक द्वारा स्वीकार्य व श्रावक किया है। इसके साथ ही श्रावक जीवन से संबंधित द्वारा चिंतनीय, इन चारों विभागों में ३५ परिच्छेद हैं। मंगल-सूत्र व सामायिक सूत्र के मूल पाठ तथा उनकी पुस्तक के प्रारम्भ में श्रावक शब्द के बारे में सूत्रों के बड़े व्याख्याएं भी दी है। सुन्दर उद्धरण दिए गये है जिससे उसके कर्तव्यों का जैन जीवन-दर्शन में व्यसन-मुक्त जीवनाराधना पर समुचित ज्ञान होता है। यथा -
बहुत जोर दिया गया है। श्रावक के लिए यह आवश्यक १. “जो संयत मनुष्य गृहस्थ में रहता हुआ भी समस्त है कि वह सात व्यसनों से दूर रहे। वे सप्त दुर्व्यसन हैं -
प्राणियों पर समभाव रखता है, वह सुव्रती देवलोक जुआ, मांस-भक्षण, वेश्यागमन, मद्यपान, शिकार, चोरी को प्राप्त करता है।
और पर-स्त्री गमन । आज अपने समाज में भी ये दुर्व्यसन २. जो व्यक्ति जीव-अजीव के ज्ञाता होते हैं. पण्य व फैल रहे हैं। इस पुस्तक में इन दुर्व्यसनों से होने वाली
पाप को समझते हैं, वे तत्वज्ञानी श्रावक देव, असुर, हानियों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। नाग आदि देवगणों की सहायता की अपेक्षा नहीं गृहस्थी में रहते हुए भी जैन गृहस्थ का जीवन रखते तथा इनके द्वारा दबाव डाले जाने पर भी साधना, ज्ञान तथा आचार से युक्त होना चाहिये। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का उल्लंघन नहीं करते।
अपने जीवन के लक्ष्य को नहीं भूले। नियमों व व्रतों का ३. किसी के पूछने पर वे श्रावक कहते हैं, "आयुष्मान! पालन करते हुए, कषाय व प्रमाद को शनैः शनैः कम
यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सार्थक है, सत्य है, परमार्थ करता हुआ वह जीवन को उत्कर्ष की ओर अग्रसर करे, है, शेष सब अनर्थक है।" (श्रावक-कर्तव्य पृष्ठ यही श्रावक जीवन का उद्देश्य है। श्रावक सरल स्वभावी १७-१८)
हो, गुणज्ञ हो, सिद्धांत-निपुण हो और शील सम्पन्न हो। इस ग्रंथ का परिशिष्ट बहुत ही महत्वपूर्ण है। उसमें "श्रावक-कर्तव्य" ग्रंथ को हम संक्षेप में "श्रावक प्राकृत विभाग में सामायिक, पच्चखाण, दया, पौषध व जीवन की मार्गदर्शिका" कह सकते हैं, जिसमें श्रावक संवर के सूत्र दिये हैं। हिन्दी के पद्य विभाग में श्रावक जीवन से संबंधित सम्पूर्ण सामग्री विस्तार से लगभग :
श्रावक कर्तव्य
११
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org