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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि ले जाने वाले है। उनमें से कुछ गुण निम्न है:१. न्याय सम्पन्न विभव - श्रावक को न्यायपूर्वक अपनी आजीविका करनी चाहिए। २. मातृ-पितृ सेवा - माता-पिता एवं वृद्ध जनों की सेवा करनी चाहिए। ३. आयानुसार व्यय - गृहस्थ को अपनी आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिए। आते हैं जैसे - भोजनादि पदार्थ। इनको मर्यादित करना उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत है। अनर्थदंड विरमण व्रत - अर्थ प्रयोजन के लिए गृहस्थ को हिंसा करनी पड़ती है किन्तु कई व्यक्ति व्यर्थ ही मन, वचन एवं काय योग से हिंसा करते हैं जैसे कि मन में चिंता, दुःसंकल्प करते रहना, प्रमाद करना, हिंसाकारी शस्त्रों का बिना प्रयोजन संग्रह करना, अन्य को पाप करने का उपदेश देना आदि। इस प्रकार के पाप कर्मों से विरत रहना अनर्थदंड विरमण व्रत है। इसी प्रकार एक सुश्रावक को चार शिक्षा व्रतों का भी पालन करना चाहिए। वे निम्न है - देशावकाशिक व्रत - दिशाओं की ग्रहण की हुई मर्यादा का पालन करना। पौषधोपवास - आठ प्रहर के लिए आहार एवं सावध क्रिया का त्याग कर एकांत में धर्मध्यान में लीन रहना। अतिथि संविभाग व्रत-साध व साध्वी को उनकी वृत्त्यानुसार चौदह प्रकार का दान निष्काम वृत्ति से देना। श्रावक व अनुकम्पा दृष्टि से अन्य को देना भी इसके अंतर्गत आता है। श्रावक सग्यग्दृष्टि होता है इसलिए वह संवेग, निर्वेद आदि का अभ्यास करता है। वह विषयाभिलाषी नहीं होता। जल में कमल की भांति अनासक्त रहता है। कहा भी है: “सम्यक् दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर्गत न्यारो रहे ज्यूं धाय खिलावे बाल ।।" मार्गानुसारी के पैंतीस गुण श्रावक के कर्तव्यों का ज्ञान प्रदान करते हैं। मार्गानुसारी का अर्थ है जो तीर्थंकरें द्वारा उद्भाषित मार्ग का अनुकरण करता ह, उन पर आगे बढ़ता है। वे सभी गुण मनुष्य को उत्कर्ष की ओर ४. यथा समय भोजन - श्रावक अपनी प्रकृति के अनुकूल भोजन उचित समय पर करें। ५. अबाधित त्रिवर्ग साधना - धर्म, अर्थ और काम - इन तीनों का मर्यादित उपभोग त्रिवर्ग साधना कहलाती है। गृहस्थ धर्म-क्रिया में प्रमाद नहीं करे, अर्थार्जन भी उसके लिए आवश्यक है अतः अर्थ और काम का सेवन मर्यादापूर्वक, विवेकपूर्वक करें। ६. अतिथि सत्कार - घर में आये साधु, दीन-दुःखी तथा सहायता इच्छुक का यथाशक्ति आदर करना चाहिए । ७. गुणपक्षपात - श्रावक गुणग्राही हो। वह सज्जनता, उदारता, परोपकार, करुणा, सरलता, मैत्री आदि गुणों को ग्रहण करें। ८. बलाबल विचार - श्रावक जो भी कार्य करे अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार करे, नहीं तो कार्य में सफलता नहीं मिलेगी एवं समय का अपव्यय होगा, जीवन में निराशा आयेगी। ६. पोष्य-पोषक कर्म - श्रावक जिनका भरण-पोषण, पालन, रक्षा का भार उसके ऊपर है। यथा माता - पिता, स्त्री, संतति, सगे-संबंधी, आश्रित कर्मचारी आदि की सुरक्षा व सुविधा का पूरा सदैव ध्यान रखे तथा उनके प्रति अपने कर्तव्य का पालन करें। | १० श्रावक कर्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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