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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि २०० पृष्ठों में प्रस्तुत की गई है। लेखक की भाषा सरल, सहज, बोधगम्य तथा प्रवाहमय है। यह ग्रन्थ प्रत्येक जिज्ञासु, विद्यार्थी तथा स्वाध्यायी के लिए पठनीय तथा मननीय है। __पंडितरत्न श्री सुमनमुनिजी म. अनेक भाषाओं के असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् हैं तथा इन भाषाओं के व्याकरण का उन्हें पूर्ण ज्ञान है। वे एक महान् शब्द- शिल्पी हैं तथा गंभीरतम विषय का सरलता से विश्लेषण करने की अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ में जैन तत्वज्ञान के सभी सिद्धांतों का विस्तृत विवेचन किया है जो एक सामान्य जिज्ञासु को भी सरलता से समझ में आ सकता है। संक्षेप में यह महान् ग्रन्थ आत्मा के दिव्य ज्ञान की एक श्रेष्ठ कृति है जिसका पारायण प्रत्येक जिज्ञासु को प्रतिदिन करना चाहिए। मैं पूज्य श्री सुमनमुनिजी म. को इस उत्तम श्रमपूर्ण ग्रन्थ की रचना करने के लिए बधाई देता हूँ तथा इस मनीषी श्रमण साहित्यकार की अभ्यर्थना करता हूँ। वृहदालोयणा (ज्ञान गुटका) इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् १९६५ में अलवर स्वीकार्य, परिहार्य, चिन्तनीय व व्यवहार की बातों का में प्रकाशित हुआ और द्वितीय संशोधित संस्करण बैंगलोर सम्यक् विवेचन उपलब्ध है। गंभीर तत्त्व ज्ञान की बातों में सन् १६६२ एवं तृतीय संस्करण सन् १६६६ में मैसूर को इस पुस्तक में सरलता के साथ प्रतिपादित किया गया में प्रकाशित हुआ। है। इसकी भाषा सहज व इसका चयन शिक्षाप्रद है। इसी "वहदालोयणा" ग्रंथ स्थानकवासी जैन समाज में कारण से यह स्वाध्यायियों में अत्यधिक लोकप्रिय है। अत्यधिक लोकप्रिय है। पंडितरल श्रीसुमनमुनिजी महाराज मूल ग्रंथ की रचना वि.सं. १६३६ में हुई। ने इसी कृति का सुन्दर अनुवाद व विस्तृत विवेचन १६३ ।। आलोचना का महत्त्व - पृष्ठों में प्रस्तुत किया है। साधक के लिए प्रतिक्षण जागृत रहना आवश्यक मूल रचयिता - है। उसे अपनी प्रत्येक क्रिया प्रमाद रहित होकर करनी इसकी मूल कृति के रचयिता लाला रणजीतसिंहजी । चाहिए तथा निरंतर अपनी भूलों का प्रायश्चित करते थे जो दिल्ली में रहते थे। वे एक ज्ञानवान श्रावक थे रहना चाहिए। आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का यही तथा जवाहरात का व्यापार करते थे। इनको आगम का मार्ग है। आलोयणा या आलोचना की परंपरा जैन समाज विस्तृत ज्ञान था। यह कृति पूर्णतः इनकी मौलिक रचना में नियमित रूप से प्रचलित है। हजारों भाई-बहन इस नहीं है क्योंकि इसमें कबीर, तुलसी, रज्जब व नानक आदि कृति का पूर्ण या आंशिक पाठ करके अपने जीवन से के दोहों का भी संग्रह है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का संचार करते हैं। विशेषतः संग्रह का चयन बड़ी सूक्ष्मता व गंभीरता से किया गया इस रचना का पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं पर्युषण पर्व के है। भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन व्यवहार को सांवत्सरिक अवसर पर पाठ समस्त संघजनों के समक्ष तोल कर रखा गया है। इसमें जीवन को छूने वाले प्रत्येक अवश्य किया जाता है। श्रावक कर्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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