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सुमन साहित्य : एक अवलोकन
तक) वे निरन्तर “आत्म-सिद्धि-शास्त्र" पर प्रवचन देते रहे
और फिर उन्हें महसूस हुआ कि श्रीमद् के उपदेशों को उनके भक्तजन जिस प्रकार से प्रचारित कर रहे हैं वह उचित नहीं है। श्रीमद् ने स्वयं सर्वप्रथम “प्रतिक्रमण सूत्र" से ही जिनधर्म-विज्ञान को ग्रहण किया था अतः
व उनके अनुयायियों के भ्रम व अज्ञान का निराकरण अत्यावश्यक समझकर इस ग्रन्थ की रचना की गई। श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने आगम व आगम-बाह्य ग्रंथों के संदर्भ देकर यह स्पष्ट किया कि श्रीमद् के ग्रंथों में जो भी उपदेश प्रतिपादित है वे आगम-सम्मत हैं और आगम ग्रंथ ही उनके ज्ञान का मूल स्रोत हैं। “आत्म-सिद्धि" तो वस्तुतः “अस्थि जिओ तह निचा" गाथा पर ही आधारित है।' इस प्रकार यह ग्रंथ श्री सुमन मुनि जी की वर्षों की साधना, गंभीर अध्ययन व चिंतन का परिणाम है। ग्रंथ का नामकरण -
पूज्य श्रीसुमनमुनिजी महाराज के दादागुरु थे पंडितरत्न प्रवर्तक श्रीशुक्लचन्द्रजी महाराज । जैन संघ के प्रभावक श्रमणों में आपका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। नाम
और गुणों के अनुसार वे “शुक्ल" थे तथा उनके तपस्वी जीवन से आपने साधना के सूत्र सीखे। उनके प्रति अपनी कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धा भावना व्यक्त करने के लिए आपने इस ग्रंथ का नाम “शुक्ल-प्रवचन" रखा, अन्यथा इस के प्रकाशक इस ग्रंथ का नाम “सुमन-प्रवचन" भी रख सकते थे। यह ग्रंथ लेखक की प्रसिद्धि-पराङ्मुखता व विनम्रता का भी द्योतक है। ये गुण आज के प्रचार-प्रसार के युग में विरल हो रहे हैं।
जो पुस्तक की विषय-वस्तु को मूर्त रूप प्रदान करता है। मुख-पृष्ठ पर तीन गोले हैं - काला, लाल और सफेद । काला रंग बहिरात्मा का प्रतीक है, जब मनुष्य इन्द्रियों के विषय व कषायों में आसक्त रहता हुआ शरीर को ही सर्वस्व मान लेता है तथा अज्ञानपूर्वक जीवन बिताता है। लाल रंग जीव की शुद्धात्मा का प्रतीक है, जब वह शरीर के प्रति आसक्ति को त्यागकर अन्तर्योति के दर्शन करता है, आत्मज्ञान की अनुभति करता है और श्वेत रंग जीवन यात्रा में जीव की उत्कृष्ट प्रगति का द्योतक है जब वह सभी आसक्तियों एवं विभावों से परे परमात्मा के दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार करता है। गोलों के ऊपर विकसित कमल का पुष्प है जो दर्शाता है कि व्यक्ति इस संसार में रहकर भी आसक्तियों के दलदल में बिना फंसे जलकमलवत् जीवन व्यतीत कर सिद्धि प्राप्त कर सकता
ग्रन्थ का मूल भाव --
“आत्म-सिद्धि शास्त्र” का मूल दोहा निम्न है"आत्मा छे ते नित्य छे, छे कर्ता निज कर्म। छे भोक्ता वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म।।"
अर्थात् आत्मा है वह नित्य है, वह कर्म का कर्ता - भोक्ता है, मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का मार्ग भी है। इस दोहे का मूल आधार प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ की निम्न गाथा ६४१ है:अस्थि जिओ तह निच्चा, कत्ता भोत्ता य पुण्ण पावाणं । अस्थि धवं निवाणं, तदवाओ अस्थि छटठाणेणं ।।" ___ इसी के आधार पर इस ग्रंथ में बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा के स्वरूप की सुन्दर व्याख्या की गई है। आपने प्रवाहमयी भाषा में इस गंभीर विषय का जो
आवरण पृष्ठ -
पुस्तक के मुखपृष्ठ पर चार रंगों का सुन्दर कवर है,
१. शुक्ल-प्रवचन भाग - २ "मेरी बात" पृष्ठ १ से ३ तक
| शुक्ल प्रवचन भाग :१ से ४
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