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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि विवेचन प्रस्तुत किया है वह अत्यन्त हृदयग्राही है तथा विषय को अत्यन्त स्पष्टता से प्रस्तुत किया है। आपने, इस गूढ़ विषय की सभी गुत्थियों को सरलता से सुलझाने इसमें विश्वविद्यालयीय शोध-पत्रों की तरह सभी संदर्भ वाला है। आत्मा के सही स्वरूप को नहीं समझने के दिये हैं अतः शोध कार्य के लिए भी इस ग्रंथ का महत्त्व कारण ही जीव इस संसार में भटक रहा है। श्रीसुमनमुनिजी है। साथ ही सुन्दर बोधकथाएँ, प्रसंग व प्रश्नोत्तर द्वारा महाराज ने इस ग्रंथ में आत्मा, परमात्मा, कर्म, कषाय, धर्म विषय को रोचक बना दिया है। इत्यादि सभी विषयों का सांगोपांग विवेचन किया है। यह __“आत्म-सिद्धि शास्त्र” के विवेचन के द्वारा पूज्य कहने में कोई अत्युक्ति नहीं कि यह ग्रंथ आत्मज्ञान की श्रीसुमनमुनिजी महाराज ने न केवल श्रीमद् के अनुयायियों एक मार्गदर्शिका (गाइड) बन गया है। में व्याप्त भ्रान्ति का सौम्यता से निवारण किया है किन्तु विषय का विश्लेषण - आत्म-प्रधान जैन धर्म के तत्त्वज्ञान का भी इतना सुन्दर । जैसा कि ऊपर कहा गया, श्रीमद् रचित' “आत्म- विवेचन किया है कि जो एक सामान्य जिज्ञासु के भी। सिद्धि शास्त्र" में १४२ दोहे हैं। पूज्य श्रीसमनमुनिजी ने सरलता से समझ में आ सकता है। संक्षेप में यह महान् इनका विस्तृत विश्लेषण चार भागों में १०३७ पृष्ठों में ग्रंथ आत्मा के दिव्य ज्ञान की एक श्रेष्ठ कृति है जिसका। किया है अर्थात् एक-एक दोहे की व्याख्या -६ पृष्ठों में पारायण प्रत्येक जिज्ञासु को निरन्तर करना चाहिए, न की है। आपने जैन आगम व व्याख्या ग्रंथों के ही नहीं केवल जैन धर्म किन्तु भारत की आत्म-प्रधान संस्कृति का । बल्कि अन्य वैदिक ग्रंथों के भी.सारे संदर्भ प्रस्तुत करके यह एक सुन्दर गुलदस्ता है। श्रावक कर्तव्य जैनधर्म में श्रावक (गार्हस्थ) के जीवन को बहुत सिद्धांतों को विस्मरण कर रहे हैं। इस प्रकार के समय में महत्व दिया गया। भगवान् महावीर ने जिस चतुर्विध श्री सुमनमुनिजी म. द्वारा रचित "श्रावक-कर्तव्य" ग्रंथ का धर्मतीर्थ की स्थापना की थी उसके चार अंग थे - श्रमण, सम-सामयिक महत्व है। आपने इस ग्रंथ में श्रावक जीवन श्रमणी, श्रावक और श्राविका। प्राचीन काल में जैन से संबंधित सभी शास्त्रों एवं ग्रंथों को पढ़ कर उनका श्रावकों का जीवन साधनामय था, उन्हें जैन सिद्धांतों में निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है। "श्रावक कर्तव्य" ग्रंथ का पूर्ण आस्था थी। उन्होंने समाज के प्रत्येक क्षेत्र में गरिमामय प्रथम संस्करण सन् १६६४ में जयपुर से प्रकाशित हुआ। स्थान प्राप्त किया था। तीर्थंकरों एवं श्रमणों द्वारा प्रचारित उस समय इस विषय पर बहुत कम सामग्री उपलब्ध थी। नीति और अध्यात्म के सिद्धांतों में उनकी अविचल आस्था इसका द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण चेन्नई से सन् १६६५। थी। इसलिए उनके जीवन में सत्यवादिता, कर्मण्यता, में, तृतीय संस्करण पुनः १६६६ सन् में प्रकाशित हुआ। उदारता व दयालुता आदि सद्गुण व्याप्त थे। समाज द्वारा स्वाध्यायियों एवं जिज्ञासुओं के लिए यह अनुपम ग्रंथ है।। उन्हें सेठ (श्रेष्ठ), महाजन तथा साहुकार के गौरवास्पद ग्रंथ रचना का हेतु - संबोधन से पकारा जाता था तथा वे समाज के हर वर्ग में "श्रावक-कर्तव्य" ग्रंथ की रचना का एक विशिष्ट लोकप्रिय थे। किन्तु आज हम उन जीवनमूल्यों और हेतु है। आज के सामाजिक वातावरण में शिथिलाचार व श्रावक कर्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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