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________________ दौरा पड़ा जो एक घंटे के पश्चात् ठीक हुआ । प्रातः ११ बजे लगभग चल पड़े संतो को संग में लेकर - विजयनगर । शिष्यों ने अनुनय-विनय की - “महाराज श्री ! आपको पीड़ा न पधारें । " किन्तु यही कहते रहे - " मैं अब ठीक हूँ ! मैंने सतियांजी को भी वचन दे रखा है। ..." और चल पड़े। दो मंजिल नीचे उतर कर अभी ५० कदम ही चले होंगे कि पुनः रक्तचाप और हृदयगति का दौरा पड़ गया। फिर भी आप निरंतर धीमी गति से चलते विद्यालय पधार ही गए । विद्यालय भवन के विज्ञान कक्ष में प्रवर्तक श्री को विश्राम करवाया। डॉ. आनन्द आए । स्वास्थ्य-निदान किया। इसी विज्ञान भवन में ही 'कुमारी राणी' को जैनप्रव्रज्या का पाठ पढ़ाया। दीक्षा समारोह सानंद सम्पन्न हुआ। रात्रि विश्राम श्रद्धेयश्री ने वहीं किया। डॉ. आनन्द ने निशा में आपके सामीप्य का लाभ उठाया। डॉ. आनन्द साधु - जीवन -चर्या एवं आत्मा के विषय में अनेकों प्रश्न पूछे और अत्यन्त हर्षित हुए श्रद्धेय गुरूवर से प्रत्युत्तर प्राप्त कर। यहीं से डॉ. आनन्द प्रथम बार जैन साधु / श्रमण के सम्पर्क में आए और अत्यधिक प्रभावित हुआ । अब मैं बहुत न जी सकूंगा १० फरवरी को प्रभात काल में आप श्री पुनः जैन स्थानक में पदार्पण करने हेतु डगमगाते कदमों से प्रस्थित हुए परन्तु शरीर ने साथ नहीं निभाया। संतों ने कुर्सी पर बिठाया आपको और जैन स्थानक में ले आए। डॉक्टर और संघ के पदाधिकारियों ने विचार विमर्श कर नीचे के पुस्तकालय भवन में ही विश्राम कराया। रात्रि को ११ बजे पुनः अस्वस्थ हो गए। डॉ. आनन्द ने आकर स्वास्थ्य निरीक्षण किया । दो-तीन दिन सामान्यरूप से बीते । दि. १४ फरवरी को १०.२० बजे पुनः अस्वस्थ हो गये थे । १५ फरवरी की सायं तो जैसे आपके जीवन की संध्या ही 1 Jain Education International सर्वतोमुखी व्यक्तित्व थी । भयंकर रोगग्रस्त हो गए और वे स्वयं ही कह उठे - “अब मैं बहुत न जी सकूँगा।” फिर भी वे १६-२० फरवरी को स्वस्थ हो गए। असह्य दारुण वेदना एक सप्ताह कुछ स्वस्थता रही। श्रद्धालु जन प्रसन्न थे । परंतु उन्हें यह मालूम नहीं था कि बुझते दीपक की ज्योति और अधिक प्रज्वलित होती है । २७ फरवरी की प्रभात वेला में १०-३० बजे से लेकर मध्यान्ह १२.३० तक असह्य दारुण-वेदना उत्पन्न हुई। शेष दिन-रात में कुछ साता रही । २८ फरवरी को दिवस भी इसी प्रकार व्यतीत हो गया । २६ फरवरी का दिवस भी प्रसन्नतापूर्वक वार्तालाप करते बीत गया । परीक्षा की घड़ी रक्तचाप और हृदय रोग की निस्सीम वेदना भी आपके साहस, सहिष्णुता और आत्म-शांति को नहीं डिगा पाई । जब भी किसी ने पूछा मुस्कराए, हाथ उठाकर “दयापालो ” का संकेत किया और मुख से यही वाणी निसृत होती - "ठीक है । ” और मंगल पाठ सुनाना आरम्भ कर देते । दिनोदिन रोग भले ही बढ़ता गया फिर भी आपके मानस में शांति आदि गुणों की वृद्धि होती चली गई । ६ फरवरी से २६ फरवरी तक की समयावधि आप श्री के जीवन-काल की परीक्षा घड़ी थी। जिसमें आप उत्तीर्ण हुए। सान्ध्यवेला सूर्यास्त होने में अभी डेढ़ घंटा शेष था । आपके मानस में स्फूर्त प्रेरणा उत्पन्न हुई और स्वेच्छया चतुर्विध आहार के प्रत्याख्यान कर लिए । चरम प्रत्याख्यान था यह आपका। प्रत्याख्यानोपरान्त प्रतिक्रमण भी स्वयं ने ही किया। उस समय तक किसी के मन में यह कल्पना तक For Private & Personal Use Only ४५ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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