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उत्तर दे दिया है कि आप सीधे अन्य मार्ग से चले जाएं या जयपुर बाईपास से निकल जाएं यहाँ आने की आचार्य देव की आज्ञा नहीं है । "
आचार्य श्री ने आया हुआ पत्र मांगा और कहा - “कुछ भी प्रत्युत्तर देने से पूर्व मुझसे विचार-विमर्श करलेना ही उचित था । "
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इस पर अत्यन्त लापरवाही से मंत्री महोदय ने कहा“मैं संघ का मंत्री हूँ, मुझे उत्तर देने का अधिकार है । हम ऐसे-वैसे सन्तों को यहाँ आने ही नहीं देना चाहते। " आचार्य श्री एवं गुरुदेव श्री पास ही खड़े थे मुनि श्री सुमनकुमार जी म. । उन्होंने कहा- मंत्री जी, आचार्य श्री के नाम से आया पत्र रखने का एवं बिना विचार-विमर्श किये प्रत्युत्तर देने का आपको कोई अधिकार नहीं है । यह आचार्य देव को ही अधिकार है कि वे अपने आज्ञानुवर्ती संतों को क्या प्रत्युत्तर दें एवं क्या दिशा-निर्देश प्रदान करें। आपके मानस में उक्त संत के प्रति कोई विद्वेष-भाव था तो आप आचार्य श्री से निवेदन कर सकते थे।”
संघमंत्री जी अपनी बात पर अड़े रहे। परिणामतः संघ की कार्यकारिणी की सभा आयोजित हुई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि आचार्य श्री जी को ही आज्ञानुवर्ती संतों के पत्र का प्रत्युत्तर एवं दिशा निर्देश देने का पूर्ण अधिकार है, मंत्री जी को नहीं। हाँ, संघ अधिकारी केवल निवेदन कर सकते है । अंततः मंत्री महोदय को संघ का यह निर्णय मानना ही पड़ा। वे सन्त जयपुर आये और दर्शन लाभ करके फिर अजमेर चातुर्मासार्थ पधारे ।
जयपुर चातुर्मास प्रारम्भ हुआ तब वहाँ एक अन्य परम्परा के लिए भी मुनिश्री जी का संघर्ष रहा। घटना यूं थी कि यहाँ जयपुर में पूज्या साध्वी श्री केशरदेवी जी का भी चातुर्मास था, व्याख्यान के समय वे श्राविकाओं के
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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
साथ ही नीचे बैठती थीं । मुनिश्री को यह अच्छा नहीं लगा - हम साधु लोग ऊँचे पाट पर बैठे और साध्वियों के लिए छोटा पाट भी नहीं ? वहाँ 'लाल भवन' में ठाकर साहब थे मुनिश्री ने उनसे कहकर छोटी चौकियां (जो थोड़ी नीची थी) रखवादी । व्याख्यान से पूर्व मंत्री आए और उन्होंने ठाकर सा. को कहकर उठवादी, मुनिश्री ने पूछा, उत्तर मिला साधुओं के सामने सतियां पाट पर नहीं बैठ सकती ? मुनिश्री ने कहा- विनय भाव की दृष्टि से नहीं, अपितु सार्वजनिक व्याख्यानादि में बैठनी ही चाहिए । श्राविका और साध्वी का स्तर एक जैसा कैसे हो सकेगा ?
उत्तर में कहने लगे - हमारे यहाँ यह रिवाज नहीं है । मुनिश्री ने कहा रिवाज और बात है, व्यवहार और आगम दृष्टि अन्य बात है । सिद्धान्त को आंच नहीं आनी चाहिए । फलतः उनके लिए चौकी पर बैठने का प्रावधान चलता
रहा ।
अलवर चातुर्मास
जयपुर से ही आगामी वर्षावास हेतु अलवर वालों का अत्यधिक आग्रह रहा । अतः प्रवर्तक श्री जी म. आदि सन्तों ने अलवर दिशा की ओर विहार किया ।
अलवर से नारनौल, रेवाड़ी, फतेहपुरी, गुड़गावां, महरोली, चिरागदिल्ली, लोदी कॉलोनी होते हुए नई दिल्ली पधारे। आचार्य श्री का भी दिल्ली में पदार्पण हुआ ।
अलवर संघ ने निरंतर आगामी वर्षावास की विनति जारी रखी अंततः सन् १६६५ के वर्षावास की स्वीकृति अलवर संघ को देनी ही पड़ी। पूज्य प्रवर्त्तक श्री जी म. ने छोटे गुरुदेव के सह ठाणा ४ से अलवर की ओर प्रस्थान किया। दिल्ली से बहादुरगढ़, झज्झर, चरखी दादरी, महेन्द्रगढ़, नारनौल, आए । यहाँ छोटे स्थानक में ठहरना हुआ। बडे स्थानक के लिए योजना तैयार हुई । चातुर्मास सन्निकट होने तथा अलवर नगर दूर, साथ ही स्थानक में पाट के नीचे बायां पैर -अगुष्ठ दबने से तीव्र
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