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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि वहाँ जा-जाकर क्या साधु बनेगा? ज्ञाति-समाज क्या कहेगा- माँ-बाप नहीं रहे, विचारे के, भटकता रहता है। मैं आखिरी चेतावनी देता हूँ कि तुम अब रुकमाँ जी या यतिजी के पास कभी नहीं जाओगे। गिरधारी मौन भाव से सुनता रहा, सोचा अभी आवेश में है। आवेश समाप्त होगा तो सब ठीक हो जाएगा। गिरधारी का जाने-आने का क्रम निरंतर बना रहा। मूलचंदजी के आवेश का पार नहीं रहा, उन्होंने गिरधारी को बकरियों को बंद करने की छोटी भखारी/कोठरी में डाल दिया और बन्द कर दिया। चाचा मूलचंदजी बहुत खुश हुए कि अब कैसे जाएगा। गिरधारी उसमें पड़ा रहा – यदा-कदा शोर मचाता रहा। रुदन भी करता रहा। आसपास के बुजुर्ग लोग आये, कहा- छोटे से बच्चे पर क्यों बेरहमी कर रहे हो? मैं आज ही शाम पंचायत (चौधरियों की) बुलाता हूँ। शाम को पंचायत हुई, मूलचंदजी को बुलाया गया। जैन भाई भी इस सभा में आये क्यों कि गरुवर्या रुकमांजी से उन्हें विदित हो चुका था कि बालक गिरधारी पर अत्याचार हो रहे हैं और उसे सद्कार्य में प्रवृत्त होने से रोका-टोका जा रहा है। जैन भाइयों ने कहा - "चौधरी मूलचंद जी ! आप अगर जैन धर्म या जैन धर्म के नियमों का - पालन नहीं कर सकते हैं तो जो कर रहा है उसे पीड़ा क्यों दे रहे हो?" उचित निर्णय चौधरी मूलचन्द जी ने कहा - मैं आप लोगों की भावनाएं समझ रहा हूँ मैं भी मजबूरी के साथ ही ऐसा कर रहा था, समाज या न्याति के भय से नहीं। मैं उसे वहाँ जाने से रोक रहा था। यही समाज बाद में कहता कि बिना माँ का बच्चा भटका फिर रहा है और परिजन हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, ये तो यहीं चाहते होंगे कि जैसे-तैसे घर छोड़कर चला जाय और हम अपने कर्तव्यों की इति श्री करलें। समाज या ज्ञाति के लोग खाए-पीए बिना रह सकते हैं, किंतु कहे बिना नहीं, समाज या ज्ञाति के मुँह पर ताला कौन लगा सकता है। अगर गिरधारी उनके पास चाहता है और जैन समाज के लोग उसके परवरीश की जिम्मेदारी लेते हैं तो मुझे कोई अब आपत्ति नहीं! .. मैं पंचायत और जैन भाईयों का आदर करता हूँ, जो भी उचित हो निर्णय ले लें। अंततः पंचायत का निर्णय यही हुवा कि रुकमांजी इसे पुत्रवत् स्नेह देती है अतः उन्हें सुपुर्द कर दिया जाय। वही हुआ भी। मिलगई छत्र छाया..... ___पुलिस-थाना' और वहाँ की 'पंचायत' के माध्यम से लिखित स्वीकृति भी प्राप्त कर ली। गिरधारी अब ममतामयी गुरुणीजी के चरणों में रहने लगा। उसका लालन पालन पुत्रवत् होने लगा। ईसरदास जो कि गिरधारी का बड़ा भ्राता था, उसको निःसंतान दम्पति श्रीमति एवं श्री चौथमलजी चौधरी जो कि स्वर्गीय श्री भीवराजजी चौधरी के चाची-चाचाजी थे ने दत्तक पुत्र के रूप में रख लिया। पुत्रवत् स्नेह-प्यार के वर्षण से ईसरदास का मानस भी आप्लावित होने लगा। दम्पति भी खुश थे, निःसंतान होते हुए भी पुत्र रल की सम्प्राप्ति कर। पर, पथ अलग-अलग.. एक भाई ईसरदास सांसारिक शिक्षा की ओर अग्रसर था और एक भ्राता गिरधारी योगमार्ग की ओर अग्रसित होने की शिक्षा पा रहा था। दोनों के पथ अलग-विलग थे। जीवन नैया के पतवार गुरुवर्या श्री रुकमा जी के पुत्र थे- यति श्री लक्ष्मीचंद जी (जो कि वर्तमान में बीकानेर में निवसित हैं, ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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