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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
यही मंजूर था विधि को.....
ईसरदास, गिरधारी, पून्ना ने प्रथम बार घर में इस प्रकार के रुदन की चीत्कार सुनी थी। “यह सब क्या हुआ" का उनकी मति कोई उत्तर नहीं दे सकी। परन्तु मन व्यथित अवश्य था। पिता जो अचानक 'राम के घर चले गए' बड़े बुजुर्गों से पूछा तो यही जबाब मिला था। ईसरदास भी रो पड़ा। गिरधारी एकटक निष्प्राण पिता की देह तथा माता के रुदन को देखता रहा, संभवतः । जीवन-मरण का कोई निष्कर्ष निकाल रहा हो। पून्ना अभी दुध मूंह बच्चा था, वह क्या समझता? माँ की चीत्कार में कभी-कभी उसका भी रुदन सुनाई दे जाता। बड़ा ही कारुणिक दृश्य था। सौभाग्य, अभाग्य में बदल गया। सिंदूर पूंछ गया हमेशा के लिये। खैर, विधि को यही मंजूर था। शवयात्रा में पूरा गाँव उमड़ पडा। देखते ही देखते उनकी यादें, स्मृतियाँ शेष रह गई।
पति मरण के छह मासोपरांत वीरां का एवं पून्ना का भी देहावसान हो गया। पारिवारिक जनों और ग्राम के लोगों ने वीरांदे के शव को अग्रि के समर्पित किया। शिशु का भी क्रियाकर्म किया। शेष रह गए... ईसर... गिरधारी... ___ ईसरदास, गिरधारी ही शेष रह गए थे इस परिवार की अकथ कथा कहने को/सहने को, विधाता ने बालकों को अनाथ बना दिया। पितृ-मातृ सुख से वंचित कर दिया, असहाय हो गए दोनों बालक। ऐन्द्रिक जाल के दृश्यवत् देखते रह गए और पिता-माता हमेशा-हमेशा के लिए इस लोक से चले गए। कौन बंधाता धैर्य उन्हें? कौन देता, लाड-प्यार? जिन बालकों को बचपन में मातापिता की ममता का लहराता 'समन्दर' मिलना चाहिए था, वहीं अब उनके चेहरे पर उदासी की स्पष्टतः झलक दिखाई दे रही थी। क्रूरकाल शिकारी बनकर आया था। ले गया तीन-तीन प्राणियों को अपना शिकार बनाकर । क्रूरकाल या नियति महापुरुषों के बचपन के साथ इस प्रकार क्यों खिलवाड करता आया है? यह रहस्य आज दिन तक छिपा हुआ है। प्रश्न भी अनुत्तरित है। मिल गई पुनः ममता
मातृ-पितृ वियोग के पश्चात् गिरधारी को पुनः ममताश्रय मिल ही गया। पांचु में ही गुरांसा (यतिजी) का उपाश्रय था, जिसे बृहद् नागौरी लौंकागच्छ के नाम से जाना जाता था। वहाँ वयोवृद्धा गुरुवर्या श्री रुकमांजी निवसित थी। उन्होंने बालक गिरधारी और उसके परिवार की विभिन्न, विच्छिन्न अवस्था को देखा तो उनके मन में करुणा की गंगा प्रवाहित हो उठी। कितना अच्छा सम्पर्क था - भीवराजजी की 'गवाड़ी' से उनका। वीरांदे के साथ भी अथाह धर्मस्नेह था। बालक गिरधारी यदा-कदा उपाश्रय में आता-जाता रहता। गुरुणी श्री को बालक में कुछ शुभ
पति-अनुगामिनी . पति-वियोग से अत्यन्त व्यथित हो गई थी – वीरांदे। पति-मरणोपरांत के सांसारिक कार्यक्रम सभी सम्पन्न हो गए। परन्तु उसके मन में तो आज भी पतिदेव की पावन स्मृति शेष है। विडोलित-व्यथित-आंदोलित करती रहती है-स्मृतियाँ मानस को। बच्चों की देखभाल करना परम कर्तव्य था अब उसका। बच्चों में मन लगा दिया उसने । परन्तु पति के अंत समय की आवाज वीरां! वीरां!! और वह कारुणिक दृश्य अपने मन से कभी भी निकाल नहीं पाई। पति की वह अंतिम पुकार मानों आज भी उसे बुलाने का आह्वान कर रही हो। घर-गृहस्थी, बच्चों की देखरेख का कार्य वह कर्तव्य के साथ कर तो रही थी परन्तु भीतर ही भीतर उसके स्वास्थ्य को घुन लग गया जो उसकी देह को दिन-प्रतिदिन जर्जरित करता जा रहा था। संभवतः यह पति अनुगमन की ही प्रक्रिया थी।
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