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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व में लग गये। तत्पश्चात् भीवराजजी आकर बैठ गए, “वीरां !” गृहांगन में। आज चेहरे पर खुशी नहीं थी और मन थामायूस ! शून्य में उनकी नजरें अपलक कुछ निहारती रही,
“हाँ,” सुबकती हुई बोली, वह ! लगा उन्हें जैसे शरीर की शक्ति ही समाप्त होती जा रही “वीरां ! बच्चों की देखभाल अच्छे ढंग से करना थी।
वीरां ! मैं तेरे भरोसे ही इन्हें छोड़कर जा रहा हूँ वीरां ! नहीं! पतिदेव नहीं!
मुझे माफ कर देना कि मैं तेरा जीवन भर साथ निभा नहीं श्री वीरांदे गृहकार्य में व्यस्त थी अब तक। कार्य से पाया....! मेरे दिल की धड़कने तेज होती जा रही हैं।" निवृत्ति पाकर वह भी गृहांगन में आई। गई पति के भीवराजजी का जीवन दीपक एकदम प्रज्वलित होकर सन्निकट और पूछ ही लिया-“आज मन मायूस कैसे?” बुझने ही वाला था।
उत्तर मिला – “कुछ भी तो नहीं हुआ, ऐसे ही। वीरांदे की आंखों से अश्रु छलक पड़े बिलखती बोल प्रतिप्रश्न किया - तो फिर इस प्रकार अन्यमनस्क
___ पड़ी-“नहीं पतिदेव ! ऐसा मत कहिए कुछ भी नहीं होगा क्यों बैठे हैं आप! मैं पानी ले आती हूँ, हाँथ-पाँव धो आपको !" ऐसा कहकर उसने पति के शरीर को सहलाया, लीजिये, फिर खाना लगा देती हूँ।”
हवा डाली। श्री वीरांदे ‘परिन्डे' की ओर बढ़ी तो उसके पतिदेव श्री भीवराजजी का शरीर ठंडा होता ही गया और ने कहा - "ठहरो वीरा ! इधर आओ, बैठो मेरे पास ! प्राण पंखेरु उड़ गए हमेशा-हमेशा के लिये इस तन रूपी आज मेरा मन नहीं लग रहा है !"
नीड़ को छोड़ कर। वीरांदे घबराई सी निकट आई, पूछा क्यों क्या हुआ
करुण-क्रन्दन आपको? मन क्यों नहीं लग रहा है? कार्य के कारण अधिक थकावट आ गई होगी ! आप जरा विश्राम कर
वीरांदे का रुदन फूट पड़ा। कल्पना तक नहीं की लीजिए - अन्दर चलकर, उठिए, पा लीजिए विश्रान्ति !" थी उसने इस हादसे की, करती भी क्यों? कल तक तो । “विश्रान्ति - वीरां लगता है, आज पूर्ण विश्रान्ति
सब कुछ ठीक ही था। कोई बीमारी नहीं थी परन्तु
आयुष्य की डोरी टूट जाने के बाद उसे पुनः कौन सांध/ का दिन आया गया है। ऊपर वाले का बू..ला..वा !"
जोड़ सकता है? संभवतः विधाता भी नहीं। क्रूर काल वीरांदे ने झट से अपनी हथेली उनके मुँह पर रख की झपट से कौन बच पाया है? कोई भी नहीं। वीरांदे के दी, तड़प उठी, कहा- “नहीं आप इसके आगे एक शब्द करुण आर्तनाद से गवाड़ी तथा आस-पास का वातावरण भी मत कहिए, मेरा जी घबरा रहा है।"
गमगीन हो गया। बड़े बुजुर्ग एकत्रित हुए। शव-यात्रा ___उसके नयनों से मोती सदृश अश्रु उभर आए। हाथ
की तैयारी में जुट गए। सभी मौन थे पर हृदय तो रो-रो से शरीर को सहलाया तो ठंडा प्रतीत हुआ। पुनः वे बोल कर रहा था - "रे विधाता ! तूने ये क्या क्रूर मजाक किया उठे - “वीरां ! मेरा अंतर्मन बोल रहा है, मैं अब....।" ।
वीरां के साथ, इन अबोध बच्चों के साथ ।” पर विधाता "नहीं, पतिदेव! नहीं...!”
ने कुछ भी जबाब नहीं दिया, इस करुण-क्रन्दन का।
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