________________
साधना का महायात्री श्री सुमन मुनि
देते हैं जैसे मृगतृष्णा लावा उगल रही हो। सुबह-शाम के तीन पुत्रों की माता विरादे वातावरण में ऐसे प्रतिभासित हो रहे हैं जैसे इन टीलों पर
कालान्तर में श्री वीरांदे को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किसी कुशल चित्रकार ने रेखाएं खींच दी हो। मन कितना
नाम रखा गया – 'ईसर'। कुछ वर्षोंपरांत फिर एक पुण्यात्मा प्रसन्न हो उठता है, इन टीलों पर बैठकर । पदचाप सुनाई ने पावन कुक्षि से जन्म लिया। दिवस था विक्रम संवतीय नहीं देती इन टीलों पर से गुजरते परंतु पदचिन्ह अवश्य १६६२ माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथी (वसंतछूट जाते हैं वहाँ, मखमल सी कोमल, मुलायम धूल पर। पंचमी) ई. सन् १६३६ । नामकरण किया गया 'गिरधारी' । ऐसी मखमली धूल को न जाने मैंने कितनी बार सहलाया कुछेक वर्षों के पश्चात् गिरधारी के एक और लघु भ्राता था, अपने हाथों से होले-होले जैसे फूल से कोमल बच्चे के हुआ। तीन-तीन पुत्रों की माँ वीराँदे । निहाल हो गई, कपोलों को कोई धीरे-धीरे सहला रहा हो। मुझे वह छटा भीवराजजी जैसा पति पाकर एवं ईसर, गिरधारी, पून्ना मनमोहक लगती है। क्यों? मैं प्रकृति में इतना खो जाता . जैसे सुकुमार पुत्रों को जन्म देकर । हूँ? खैर, आईये अब मैं आपको इसी ग्राम के एक संभ्रान्त
सानंद-निवसित श्री भीवराजजी परिवार का कुछ दिग्दर्शन कराना चाहता हूँ। पूर्व यह भी बता देना चाहता हूँ कि वह फूल इसी धरा के दल-दल में
___अपने परिवार के साथ श्री भीवराजजी सानन्द निवसित खिला था। नहीं हुआ न विश्वास आपको? कभी धूल में
थे। सभी प्रकार का सौख्य उनके घर में अठखेलियाँ कर
रहा था। न कोई चिन्ता, न कोई विषाद, पूर्ण सन्तुष्टि थी, भी फूल/सुमन खिले हैं? अरे! यही तो आश्चर्य की बात
उन्हें अपने जीवन से, पलि से, बच्चों से। पर ईर्ष्या हो है! रत्नगर्भा है - यह वसुंधरा तो ! फूल, शूल और
रही थी उनके परिवार की आत्मिक शान्ति से, किसी त्रिशूल सभी इसी धरती पर ही तो है। कभी किसी वस्तु
शक्ति को। इसी ईर्ष्या की आग में कौन-कौन जले? और की नास्ति नहीं होती।
कौन था वह शिकारी, जो अपना शिकार खोजता उस घर
तक पहुँच ही गया... एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन सुखिया/संभ्रांत परिवार
शिकार...! हाँ, तो इसी ग्राम में भद्र प्रकृति के दम्पति निवास कर रहे थे। संतोष ही जिनका धन था। सरलता ही
चलो! बुलावा आया है...! जिनका विशिष्ठ गुण था। आत्मीयता ही जिनका व्यवहार आज श्री भीवराजजी कार्यसम्पन्न कर बैलगाड़ी पर था। दम्पति थे-श्री भीवराजजी चौधरी, श्रीमती वीरांदे।
बैठकर घर की ओर लौट रहे थे। तन श्रान्त था मन ज्ञाति जाट, वंश गोदारा। गवाड़ी में छोटा सा मकान ।
क्लान्त ! शरीर जैसे शक्ति विहीन हो गया हो। दोनों
बैल कदमों से कदम मिलाते अपनी गति से चल रहे थे। दोनों तरफ झोपड़ें, बीच में रिक्त स्थान । जाट के ठाठ
बैलगाड़ी के पहिए राह पर एक लम्बी सी पट्टी का निशान की कमी नहीं थी। बॉट जोहता उसकी हर कोई, अपने
धूली पर छोड़ते हुए गुड़कते जा रहे थे। थोड़े ही समय चौपाल पर बिछाकर खाट । 'माट' की ऊँची भूमि पर में बैलगाडी 'गवाडी' में खड़ी थी। बैलों के कंधों से जुआ खड़ा होता कभी-कभी तो लगता कि गाँव का यही है उतारा। ‘छकड़े' को एक तरफ किया तथा बैलों को मुखिया। हाँ तो उसका परिवार था-बहुत सुखिया। 'चारे' के स्थान 'ठाण' पर बांध दिया। बैल आहार करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org