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श्रमण परंपरा का इतिहास
करते थे। उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण नहीं थी पर निरंतर स्वाध्याय और श्रम के बल पर उन्होंने ज्ञानावरणीय कर्म को काफी शिथिलकर दिया था।
ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान भी आपको काफी अच्छा था। परन्तु उसका उपयोग आपने कभी लोकैषणा के लिए नहीं किया। वस्तुतः लोकैषणा तो आपको कतई पसन्द न थी। आपका श्रमण जीवन तो उस सुवासित फूल के समान था जो एकान्त जंगलों में खिलकर ही आनन्दित होता है और अपनी सुवास से वातावरण को सुवासित करता रहता है।
आप अल्पभाषी मुनिराज थे। उतना ही बोलते थे जितना आनिवार्य होता। उसी के परिणामस्वरूप आपकी वाणी में दिव्य बल उतर आया था।
जप में भी आपकी विशेष रुचि थी। घण्टों-घण्टों
तक कायोत्सर्ग में लीन रहकर आप जाप किया करते थे।
आपने अपने जीवन काल में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल तथा गुजरात आदि प्रदेशों की यात्राएं की। सादड़ी आदि सम्मेलनों में भी आप सम्मिलित हुए थे। __ श्रमण शब्द के भावपक्ष समता, श्रमशीलता और कर्म-शमनता आपके जीवन साज से मुखरता से ध्वनित हुए थे....उद्गीत हुए थे।
'चांदवड़' महाराष्ट्र में नश्वर देह को त्याग कर आप देवलोक वासी बने।
चांदवड़ में श्री राजेन्द्र मुनि जी म. की स्मृति में भव्य स्मारक भवन का निर्माण हुआ है। ..
आचार्य श्री काशीराम जी म. के शिष्यरत्न कविरत्न श्री सुरेन्द्र मुनिजी महाराज
परम वंदनीय, परम श्रद्धेय, कविरल श्री सुरेन्द्र मुनि जी महाराज जैन जगत् के एक प्रतिष्ठित मुनिराज थे। वे लेखक थे, प्रसिद्ध वक्ता थे, समाज पर उनकी गहरी पकड़ थी, इस सबसे ऊपर वे एक संयम को मनः प्राण से समर्पित मुनिराज थे। उनकी संक्षिप्त जीवन रेखाएं निम्नोक्त
हो जाना पड़ा।
पांच वर्ष की अवस्था में आपने विद्यालय में प्रवेश किया। सात कक्षाएं उत्तीर्ण करने के पश्चात एक घटनाक्रम में अम्बाला में विराजित पूज्य आचार्य श्री कांशीराम जी म. के दर्शनों का आपको सौभाग्य मिला। प्रथम दर्शन में ही आपका हृदय उन चरणों से बंध कर रह गया। आपने आचार्य भगवन् का शिष्य बनने का संकल्प कर लिया।
आचार्य भगवन् ने आपको जांचा-परखा और वैरागी रूप में अपने पास रख लिया। पूज्य आचार्य भगवन् के निर्देश पर पण्डितरत्न श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज ने विजय दशमी के दिन २५ अक्टूबर सन् १६३६ को, उन्नीस वर्ष की भरी जवानी में आपको दीक्षामंत्र का महादान प्रदान
हरियाणा प्रान्त के कुरुक्षेत्र जिले के अन्तर्गत एक छोटा सा ग्राम है - रादौर। इसी गांव के एक सैनी क्षत्रिय श्रीमान् कुन्दनलाल की अर्धांगिनी श्रीमती कृष्णादेवी की रत्नकुक्षी से जन्म लेकर आपने जगतितल पर आंखें खोलीं। नामकरण के प्रसंग पर आपको केदारनाथ नाम दिया गया। बाल्यावस्था में ही आपको मातृवात्सल्य से वंचित
| कविरत्न श्री सुरेन्द्रमुनि जी महाराज
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