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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि महाराज (२) श्री सुधीरमुनि जी महाराज एवं (३) श्री संजय मुनि जी महाराज। कर दिया। उल्लसित-उमंगित हृदय से आप संयमशिखर । के यात्री बन गए। आपकी अध्ययन रूचि प्रबल थी। हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी आदि भाषाओं का समुचित ज्ञान आपने हृदयंगम किया। जैन-जैनेतर दर्शनों के भी आप अच्छे जानकार बने। आपके प्रवचन अत्यन्त मधुर होते थे। आपकी वक्तृत्व शैली से श्रोता गहरे तक प्रभावित होते थे। स्वनिर्मित कविताओं-गीतों का उपयोग आप अपने प्रवचनों में करते थे। श्रोता झूम-झूम उठते थे। आपकी मंगल प्रेरणाओं से समाज कल्याण के अनेक कार्य समय-समय पर संपादित होते रहे। कई जगह आपकी प्रेरणा से विद्यालयों महाविद्यालयों और डिस्पेंसरियों की स्थापना हुई। आंखों के कैंप भी लगते रहे। निर्धन छात्रछात्राओं को छात्रवृत्तियां आप दिलाते रहे। आपका पूरा जीवन लोक कल्याण हित श्रम साधना करते हुए ही व्यतीत हुआ। पर इस सब के बावजूद आपका संयमीय दृष्टिकोण सदैव अखण्ड रहा। संयम की शर्त पर आपने कभी समझौता नहीं किया। १४ फरवरी १६६४ को आपने बराड़ा (हरियाणा) में पूर्ण समाधि भाव के साथ देह का त्याग किया। विद्वद्वर्य श्रमण संघीय सलाहकार, मंत्री एवं उप.प्र. श्री सुमन मुनि जी म. की दीक्षा के लिए आप श्री ने ही श्रम किया था। इस दृष्टि से आप पूज्य श्री के दीक्षा प्रदान करनेवाले गुरु थे। श्री सुमन मुनि जी म. को दीक्षित करवाके आपने उन्हें श्री महेन्द्र मुनि जी महाराज का शिष्यत्व प्रदान किया था। वर्तमान में आप श्री के तीन शिष्यरत्न आपके जनकल्याण के महाभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। आपके तीन शिष्य हैं - (१) युवामनीषी श्री सुभाष मुनि जी कविरत्न श्री सुरेन्द्र मुनिजीम.के शिष्य (१) युवामनीषी श्री सुभाष मुनि जी महाराज ___ आप व्याख्यान वाचस्पति, कविरत्न श्री सुरेन्द्र मुनि जी महाराज के ज्येष्ठ शिष्यरल हैं। बाल्यावस्था में ही वीतराग धर्म संघ में प्रव्रजित होकर आपने अपने दिव्यभव्य जीवन तथा श्रेष्ठ साधुता से जिनशासन की प्रभूत प्रभावना की है। मेरठ नगर में १६ जनवरी १६५६ को आपका जन्म एक समृद्ध ओसवाल परिवार में हुआ। लाला कस्तूरीलाल बांठिया तथा श्रीमती महिमावती जैन को आपके पितृत्वमातृत्व का सौभाग्य प्राप्त हुआ। स्वतंत्रता से पूर्व आपका परिवार रावलपिंडी में रहता था। गुरुदेव श्री सुरेन्द्र मुनि जी महाराज ने रावलपिंडी में वर्षावास किया था। उस समय आपकी माता श्रीमती महिमावती जैन दीक्षा लेने की इच्छुक बनी। गुरुदेव पण्डित रत्न श्री शुक्लचन्दजी म. के सम्पर्क में आईं। गुरुदेव ने कहा – “बहन ! परिस्थितियाँ आपको दीक्षित नहीं होने देंगी। अपनी संयम रुचि को आप अपनी संतानों में साकार करना।" श्रीमती महिमावती जैन ने गुरुदेव के वचनों को पूर्णतः साकार किया। अपनी चार सन्तानें उन्होंने वीतराग के मार्ग पर अर्पित कर जिनशासन की महान सेवा की। मुनिधर्म में दीक्षित होनेवाली आपकी चार सन्तानों के नाम हैं - (१) श्री सुभाष मुनिजी म. (२) श्री सुधीर मुनिजी म. (३) डॉ. श्री अर्चना जी म. एवं (४) श्री मनीषा जी म.। युवामनीषी श्री सुभाष मुनि जी महाराज | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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