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________________ तपस्वीरल, उपप्रवर्तक श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज आचार्य देव श्री अमरसिंह जी महाराज की मुनि परम्परा के एक उत्कृष्ट संयमी सन्त रत्न थे । सरलता, सेवा और साधुता उस जीवन में समग्रता से साकार हुई थीं। अपने जीवन का एक-एक पल उन्होंने स्व-पर कल्याण के लिए अर्पित किया था । पूज्यवर्य तपस्वी जी महाराज का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है गुरुदेव श्री शुक्लचन्द्रजी म. के शिष्यरत्न १) सेवामूर्ति तपस्वीरत्न श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज राजस्थान प्रान्त के सीकर जिले में एक छोटा सा गांव है काँवट गांव। इसी गांव में सन् १६०५ में वसंत पंचमी की प्रभातवेला में श्रीमान् लादूसिंह राजपूत की धर्मप्राण पत्नी श्रीमती विजयाबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस बालक का नाम सूरज रखा गया। सूरज की दो अन्य बहिनें थीं जिनके कालक्रम से विवाह कर दिए गए । - सूरज अभी यौवन में कदम न धर पाया था कि उसके माता-पिता चिर विदा हो गए। अत्यन्त कष्टपूर्ण क्षण से गुजर कर सूरज ने गृहदायित्व संभाला। वे अपने पशुओं को चराने जंगल में ले जाते थे। राजपूती साहस और शौर्य उनके अंग-प्रत्यंग से टपकने लगा था । अनुश्रुति है कि जंगल में कई बार उनका सिंह से सामना हुआ। दो अवसरों पर - एक बार अपनी बहन की रक्षा तथा दूसरी बार अपने पशुओं की रक्षा के लिए उन्होंने सिंह को मार डाला । जंगल में पशु चराते हुए ही उन्हें जीवन में प्रथम बार मुनिदर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । सं. १६८६ पूज्य पंजाब केसरी आचार्य श्रीकाशीरामजी म. अपने शिष्य वृन्द सहित अजमेर मुनिसम्मेलन में भाग लेने जा रहे थे। जिस मार्ग पर विश्राम हेतु आचार्य देव कुछ देर ठहरे थे सेवामूर्ति तपस्वी रत्न श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज Jain Education International श्रमण परंपरा का इतिहास संयोग से सूरज अपने पशुओं को चराते हुए उधर ही आ गया। आश्चर्य भाव से सूरज ने आचार्य देव को देखा । निकट आया । वार्ता हुई । क्षणिक वार्ता के बाद सूरज के तन-मन-प्राण आचार्य देव के प्रति श्रद्धा और समर्पण से भर गए। उसी क्षण वे अपना सर्वस्व त्याग कर आचार्य देव के साथ चलने को तत्पर हो गए । कालान्तर में अमृतसर नगर में युगप्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी महाराज के करकमलों से सं. १६६१ वसंत पञ्चमी के शुभ दिन सूरज ने मुनिदीक्षा ग्रहण की। उन्हें नवीन नाम दिया गया श्री सुदर्शन मुनि । पूज्यवर्य पण्डित रत्न श्री सोहनलाल जी म. प्रभूत सेवाराधना की। आपकी सेवा से आचार्य भगवन् अति प्रसन्न थे । अपने महाप्रयाण से तीन दिन पूर्व ही आचार्य श्री ने एतदर्थ आपको स्पष्ट संकेत दे दिए थे। - तप और सेवा मुनि के आचार के प्राणतत्त्व होते हैं । श्री सुदर्शन मुनिजी म. ने स्वयं को तप और सेवा में समग्रतः समर्पित कर दिया था । आचार्य श्री कांशीरामजी म., पूज्य गुरुदेव पंडितरल श्री शुक्लचन्दजी म., वयोवृद्ध श्री भागमल जी म., अर्द्धशतावधानी श्री त्रिलोकचन्द जी म., पूज्य श्री कपूरचन्दजी म., पूज्य बाबा श्री माणकचन्द जी म., पूज्य श्री छज्जूमुनि जी म., पूज्य श्री पूर्णचन्द्र जी म., पूज्य श्री जिनदासजी म. आदि मुनि भगवन्तों की सेवा में आपने अपना पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया था । आपका अग्लान सेवाभाव श्रद्धा का विषय था । For Private & Personal Use Only आपका प्रलम्ब संयमीय जीवन अत्यन्त उज्ज्वल रहा। आगम - वर्णित साध्वाचार के प्रति आपकी निष्ठा बेमिसाल थी । ५३ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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