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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास पूज्य गुरुदेव पण्डित रत्न श्री महेन्द्र कुमार जी म. की संक्षिप्त जीवन झांकी पूज्य गुरुदेव पण्डितरत्न श्री महेन्द्र कुमार जी महाराज उन दिनों जालंधर छावनी में उग्रतपस्वी श्री पंजाब मुनि परम्परा के एक संयमनिष्ठ, सेवासमर्पित तथा निहालचन्दजी म. एवं पूज्य गुरुदेव पंडित रल प्रवर्तक श्री विद्वान् मुनिराज थे। सहजता, सरलता और तपस्विता का शुक्लचन्दजी महाराज विराजमान थे। पुण्योदय से माता संगम तीर्थ उस जीवन धरा पर प्रवाहित हुआ था। चमेली देवी पूज्य गुरुदेव के सम्पर्क में आई। कहावत बाह्याडम्बरों तथा भौतिक चकाचौंध से वह जीवन ठीक है - संत दर्शन से बड़े-बड़े कष्ट कट जाते हैं। यह कहावत वैसे ही अछूता था जैसे कमल जल में रहकर भी उससे __ चमेली देवी के लिए साक्षात् सत्य बन गई। गुरुदेव के अछूता रहता है। सादगी के अमृत से तृप्त उनका सन्यास दर्शन से उसके जीवन का दुर्दैव ध्वस्त हो गया। उन चतुर्थ काल के श्रामण्य को साकार करता था। चरणों पर उसने अपना सर्वस्व अर्पित करते हुए अपने पूज्य गुरुदेव का इतिवृत्त यों है सातों नौ निहाल अर्पित कर दिए। ठीक वैसे ही जैसे आपका जन्म धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर । माता गुजरी ने अपने चारों लालों को देश की रक्षा के के एक छोटे से ग्राम भलान्द (रामनगर से आगे) में सं. लिए अर्पित किया था। १६८१ में एक सारस्वत गौत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ श्री राजेन्द्र कुमारजी और श्री महेन्द्र कुमार जी ये दो था आपके पिता का नाम पं. श्री श्यामसुन्दर एवं माता का ___ माता चमेली के लाल गुरुदेव के श्री चरणों में रहकर नाम श्रीमती चमेली देवी था। आपके माता - पिता विशुद्ध विद्याध्ययन करने लगे। इनके तीन सहोदर - अमरेन्द्र संस्कारी और वैष्णव थे। आप स्वयं सहित सात भाई कुमार, शिवकुमार एवं धनेश कुमार ने गुरुकुल पंचकूला थे। भाइयों में आपका तृतीय क्रम था। में रहकर शिक्षा प्राप्त की। शेष दो भाई रामशरण आदि ___ दुर्दैववश बाल्यावस्था में ही आपको पितृवात्सल्य से अपनी माता के साथ वापिस कश्मीर चले गए। वंचित हो जाना पड़ा। आपकी माता श्रीमती चमेली देवी पूज्यवर्य पंडित श्री शुक्लचन्द जी म. ने राजेन्द्रकुमार के लिए वह अत्यन्त पीड़ादायी समय था। अकेली नारी जी को दीक्षा आचार्य श्री काशीराम जी म. के आचार्य पद पर सात पुत्रों और दो पुत्रियों के पालन पोषण का बृहद् की प्रतीक चादर महोत्सव पर होशियारपुर पंजाब में दी। दायित्व था। यों उसके पास गांव में कृषि योग्य प्रभूत कालान्तर में श्री महेन्द्रकुमारजी की दीक्षा हांसी नगर में जमीन थी। परन्तु काम करने वाला कोई न था। कश्मीर की प्राकृतिक स्वर्गीय सुषमा और शीतल-सुगन्धित बयारें वि. सं. १६६४ भाद्रपद शुक्ला पंचमी, सम्वत्सरी के शुभ भी उनके लिए मोहक और सुखद न रह गई थी। किसी दिन सम्पन्न हुई। अज्ञात निमन्त्रण की डोर में बन्धकर वह अपने सातों दीक्षित होकर आपने अपना समग्र जीवन गुरुसेवा नौनिहालों के साथ कश्मीर से चल पड़ी। अजान पथों और ज्ञानाराधना में अर्पित-समर्पित कर दिया। आपकी पर, दुर्लध्य वादियों को लांघती हुई वह पंजाब पहुंची। प्रबल ज्ञान पिपासा को देखते हुए पूज्य गुरुदेव ने पण्डित स्थान था - जालन्धर छावनी । दशरथ झा को आपके अध्यापन के लिए नियुक्त कर | श्री महेन्द्र कुमार जी म. संक्षिप्त जीवन झांकी ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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