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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि दिया। पण्डितजी ने निरन्तर सात वर्षों तक आपके साथ रहकर आपको हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि भाषाओं का गहन अध्ययन कराया। ___भाषा ज्ञान के साथ-साथ आपने गुरुदेव की चरण सन्निधि में आगमों का पारायण भी किया। जैन दर्शन के अतिरिक्त जैनेतर दर्शनों का भी आपने अध्ययन और मनन किया। फलतः आप एक विद्वान् मुनि के रूप में संघ में पहचाने गए। ‘पंडित' उपनाम से आपको पुकारा जाने लगा। कालान्तर में आप यथावसर साधु-साध्वियों और श्रावक व श्राविकाओं को शास्त्र स्वाध्याय कराते रहे। आपकी वाचना शैली सुबोध, सरल और अत्यन्त सरस थी। अनेकों मुमुक्षुओं ने आपके चरणों में बैठकर अपनी ज्ञान पिपासा शान्त की। सेवा समर्पित साधक - आप श्री ने अपने जीवन काल में अनेक मुनियों की सेवा आराधना की। सेवा का प्रसंग पाकर आपका हृदय प्रफुल्लित हो उठता था। आप आचार्य देव श्री कांशीराम जी महाराज के साथ मेवाड़ प्रवास पर थे। उदयपुर में विहार करते हुए, आपको सूचना मिली कि अमृतसर में तपस्वी श्री ईश्वरदास जी महाराज अस्वस्थ हैं और उन्हें सेवाभावी संत की जरूरत है। उक्त समाचार पाते ही आप पूज्य आचार्य देव की आज्ञा पाकर उग्र विहार करते हुए थोड़े ही दिनों में उदयपुर से अमृतसर पहुंच गए और सेवा का मेवा लूटने लगे। रायकोट में विराजित श्री बेलीराम जी म. की भी आपने काफी समय तक सेवा की। स्यालकोट में महास्थविर श्री गोकुलचन्द जी म. की आपने दो वर्षों तक सेवा की। इसके अतिरिक्त अपने पूज्य गुरुदेव पं. रत्न पूज्य प्रवर्तक श्री शुक्लचन्द जी म. की सेवा में भी आप अहर्निश संलग्न रहते थे। आप श्री का विचरण क्षेत्र भी काफी विस्तृत रहा। यह इस तथ्य से सहज सिद्ध हो जाता है कि आपने सादड़ी, सोजत, भीनासर, बीकानेर तथा अजमेर में हुए सभी मुनि सम्मेलनों में भाग लिया था। जप-योगी महामुनि मुनि योगी होता है। वह अपने तीनों योगों (मनवचन-काय) को वश में करके आत्मलीन हो जाता है। गुरुदेव पूज्य श्री महेन्द्र कुमार जी म. ने जप विधि से अपने तीनों योगों को वश करके योगीराज होने का गौरव पाया था। आप हर समय कर-जप में लीन रहते थे। सुबह, दोपहर, संध्या, रात्री का अधिकांश भाग जप करते हए व्यतीत होता था। आप एकान्त प्रिय मनि थे। एकान्त में समाधिस्थ रहते हुए आप जाप किया करते थे। उस अवस्था में / जप अवस्था में आप इतने एकाग्र और तल्लीन हो जाते थे कि बाह्य जगत् में क्या घट रहा है इससे पूर्णतः निरपेक्ष हो जाते थे। आत्मरमण, आत्मचिन्तन और आत्म ध्यान ही आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य शेष रह गया था। आप सरल संयम के पक्षधर थे। जटिलता और प्रदर्शन आपको कतई पसन्द न थे। सरलता और सत्य आपके संयमीय जीवन के परम आभूषण थे। आप जो एकान्त में थे वही भीड़ के मध्य थे। छिपाने के लिए आपके पास कुछ न था। आप जो कहते थे, वही सोचते और करते भी थे। “सोही उज्जूयभूयस्स" का सिद्धान्त आपने सांस-सांस में जीया था। ____ आप अत्यन्त विनम्र, मृदुभाषी और आत्मार्थी मुनिराज थे। मधु से भी मधुरतम व्यवहार था आपका। आपने अपने जीवन काल में किसी बालक का भी हृदय नहीं दुखाया। ऊंचे स्वर में बोलते हुए आपको कभी किसी ने नहीं देखा। ४८ अ.भा.वर्ध.स्था.जैन श्रमणसंघ के आचार्यों का संक्षिप्त जीवन परिचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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