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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
समाज और धर्म की बहुत-बहुत सेवा की है, पर सेवा करके भी वे सदा विनम्र और मधुर बने रहे। सदड़ी सम्मेलन में जब स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के ऐक्य संगठन का दिव्य घोष ध्वनित हुआ, तो उन्होंने निर्मल मन से अपना पूर्व साम्प्रदायिक युवाचार्य पद त्याग दिया। प्रसंगवश मनुष्य किसी बड़ी चीज का त्याग कर देता है, किन्तु अन्दर में कुण्ठा घर कर लेती है। परन्तु स्वर्गीय प्रवर्तक श्री जी को इसके लिए सर्वथा निर्लिप्त देखा गया। वे यवाचार्य जैसा महान पद, जिसके लिए कितने जोड़तोड़ लगाए जाते हैं, दौड़ धूप की जाती है, सर्पकंचुकवत् त्यागकर सदा प्रसन्न रहे। कोई भी मलाल मुख तथा वाणी पर कभी नहीं देखा। वे कहा करते थे, संघहित एवं संघ संगठन के लिए मुझसे जो भी अपेक्षा है, वह मैं सहर्ष करने के लिए सदा प्रस्तुत हूँ। ऐसे थे विलक्षण दिव्यजीवन के धनी प्रवर्तकश्री जी यथा नाम तथा गुण। यही 'सत्यं शिवं सुन्दरं' उनके जीवन का आदर्श रूप हमें उनके पश्चात् भी प्रेरणा एवं मार्ग दर्शन करता रहेगा।
स्व. प्रवर्तक श्री जी महाराज के वर्तमान में छह शिष्य जो अपने संयम-नियम के साथ विशिष्टगुण सम्पन्न भी हैं और थे।
१. तपस्वी श्री सुदर्शन मुनि जी महाराज - आप प्रवर्तक श्री जी के सब से बडे शिष्य थे। आचार्य शिरोमणि श्री सोहनलालजी महाराज के कर-कमलों से दीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सेवा और तप आपके विशिष्ट गुण थे। साथ ही शास्त्र-स्वाध्याय भी जीवन का अंग था। स्वभाव से विनम्र और किसी प्रकार की अन्य
गतिविधियों से अलग-थलग रह अपनी साधना में लीन रहते थे। ६-३-६७ को अम्बाला नगर में आपका स्वर्गवास हआ।
२. पं. श्री राजेन्द्रमुनि जी महाराज - आप महाराज श्री जी के द्वितीय शिष्य थे। सेवा और स्वाध्याय निरत मुनि श्री संस्कृत-प्राकृत भाषा के पंडित थे। स्वभाव से स्पष्टवक्ता थे। महाराष्ट्र, बंगाल, गुर्जर आदि प्रदेशों की यात्रा करते हुए चांदवड़ (महाराष्ट्र) में आप देवलोक वासी हुए।
३. पं श्री महेन्द्रमुनि जी महाराज - पं. श्री राजेन्द्र जी महाराज के लघु गुरू भ्राता एवं सहोदर भी थे। आप की भाँति ये भी संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के पंडित, सेवास्वाध्यायलीन, स्वभाव से शांत एवं विनम्र थे। आपका देहान्त मलेरकोटला (पंजाब) में १६८२ ई. में हुआ।
४. तपस्वी श्रीचंद जी महाराज - ये प्रवर्तक श्री जी के पारिवारिक निकट सम्बन्धी हैं। प्रथम बार ग्राम में दर्शन करते ही उनके चरणों में रहकर सेवा करने का संकल्प कर लिया था फलतः दीक्षा ग्रहण करके अपना संकल्प साकार किया। सेवा और तपस्या इन का जीवन धर्म हैं।
५. श्री संतोष मुनि जी – स्वाध्याय और सेवाव्रती वाले संत है, साथ ही प्रवचन के अभ्यासी है।
६. अमरेन्द्र मुनि जी - ये प्रवर्तक श्री जी के लघुतम शिष्य हैं। विद्वान तथा अधुना अर्हत्संघ के सदस्य हैं।*
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प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज |
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