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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास श्वेत हृदय तन श्वेत पट, श्वेताचार विचार। श्वेत सुगुन सित ध्यान शुभ, धन्य शुक्ल अणगार।। (२) पंजावी कवि श्री विलायती राम जैन जालंधरी ने अपने हृदयोद्गार यों प्रगट किए थे - शुक्ल जन्म्या ते शुक्ल लई दीक्षा, शुक्ल नाम धारया संसार दे विच । चमकया दमकया खिड़या ते महकया वी, पूज्य सोहनलालजी दे भरे परिवार दे विच ।। शीतल लेश्या दी, सुन्दर महक छिड़की, पंजाब केसरी दे बाग गुलजार दे विच । शुक्ल पक्ष अन्दर शुक्ल जी अमर होए, विलायतीराम तड़पदा ए ओहदे प्यार दे विच।। (३) पूज्य प्रवर कविरल उपाध्याय श्री अमरचन्दजी म. पूज्य प्रवर्तक श्री जी के अत्यन्त निकट के मित्र मुनिवरों में से थे। पूज्य उपाध्याय श्री जी ने पूज्य प्रवर्तक श्री जी के महाप्रयाण पर अपने जो हृदयोद्गार प्रगट किए थे वे यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं.... एक विनम्र, सौम्य मूर्ति ___ एक बार श्रमण भगवान् महावीर ने अपने प्रवचन में मानव स्वभाव पर विश्लेषण करते हुए कहा - कुछ ही मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य होते हैं, उनका जीवन आदर्शों से अनुप्राणित एक ज्योतिर्मय जीवन होता है। वे जहाँ जन्म लेते हैं वह धरा उनसे कृतार्थ होती है, जिस राष्ट्र और समाज को वे अपना कर्म क्षेत्र बनाते हैं, वे राष्ट्र और समाज उनके गौरवमय कर्तृत्त्व से तथा प्राणवान् व्यक्तित्व से तेजस्वी बन जाते हैं। वे प्रज्वलित ज्योति होते हैं, एक दीपशिखा ! जो जीवन भर अन्धकार से लड़ती रहती है, अपने परिपार्श्व को आलोकित करती रहती है, किंतु । कभी अपने कर्तृत्व का पैमाना बनाकर किसी को दिखाने नहीं जाती। भगवान महावीर के मूल शब्दों में – अढकरे णामं एगे, णो माणकरे!" वे अर्थ अर्थात् सेवा आदि महत्वपूर्ण कार्य निरन्तर करते जाते हैं, मौन और शान्त, निस्पृह भाव से किन्तु कभी भी उसके फल की आकांक्षा नहीं करते, अपने कर्तृत्व पर कभी अभिमान नहीं करते। भगवान् महावीर के इस व्यक्तित्व-विश्लेषण पर मैं सोचता हूँ तो प्रवर्तक श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज का जीवन-चित्र मेरे समक्ष उभर जाता है। आप लोग आज उनकी स्मृति सभा में उपस्थित हुए हैं। मुझे ऐसा लगता है कि उनकी पुण्य स्मृतियां पुजीभूत होकर हमारे समक्ष आज उनके आदर्शों की जीवनकथा गा रही है। पंजाब उनका विशेष कर्मक्षेत्र रहा है। और वहाँ की जनता की अगाध श्रद्धा उनके तेजस्वी और कर्मयोगी व्यक्तित्व को प्राप्त हुई थी। बहुत से व्यक्ति थोड़ी-सी जन-श्रद्धा पाकर गदरा जाते हैं। निन्दा को ज़हर बताया गया है, किन्तु मैं मानता हूँ, निन्दा से भी अधिक उग्र ज़हर है श्रद्धा का। श्रद्धा यों जहर नहीं है, किन्तु उसकी दुष्पाच्यता की दृष्टि से ही मैं .. आपको बता रहा हूँ कि निन्दा का उग्र विष पचाने वाले भी श्रद्धा को नहीं पचा सकते। वे गदरा जाते हैं, दर्प और जन-श्रद्धा के अभिनिवेश में वे अपने को सातवें आसमान से भी ऊँचा गिनने लग जाते हैं। परन्तु प्रवर्तक श्रीशुक्लचन्द्र जी महाराज को मैंने बहुत निकट से देखा जैसे-जैसे जन-श्रद्धा, लोक-भक्ति और आदर सत्कार उन्हें प्राप्त हुआ, वे वैसे-वैसे विनम्र, सरल एवं सौम्य बनते गए। ___ उनका वचन मधुर था, मन भी मधुरतर ! उनका दैहिक वर्ण भी काफी साफ-शुक्ल - उजला था और मन तो और भी शुक्ल ! वास्तव में ये श्रमण संघ के एक महाप्राण निष्ठावान संत थे। मधुर प्रवक्ता और मूक सेवाभावी ! उन्होंने | प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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