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________________ मुनिश्री ने धर्म के प्रचार हेतु लगभग १६-२० वर्ष तक पंजाब (पूर्वी-पश्चिमी देहली, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यभारत, दक्षिण गुर्जर) आदि प्रदेशों में विचरण किया । आपने अपने उपदेश, अध्यापन, चर्चा आदि विधाओं के माध्यम से जैनधर्म का ही नहीं अपितु जीवन धर्म का भी प्रचार किया। समय-समय पर समाज और धर्म पर आने वाले आक्षेपों का आगम तथा अकाट्य तर्क शक्ति द्वारा निवारण कर आपने प्रखर बुद्धिमान होने का परिचय दिया । यह काल वि.सं. १६८० से लेकर २००२ तक का है। श्रद्धेय श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज प्रवचन पटु थे । आपका प्रवचन आगमिक, तत्त्वगर्भित तथा जीवन के रहस्यों को उद्घाटित करने वाला होता था । श्रोता आपके प्रवचनों में इतने तल्लीन हो जाते थे कि उन्हें समय का ख्याल भी नहीं रह पाता । सम सामयिक प्रवचन देने की कला में आप अत्यंत माहिर थे। आपके उद्बोधन की भाषा सरल होती थी एवं सहजरूप से हृदय में अपना स्थान बना लेती थी। आपके उद्बोधनों से प्रभावित होकर अनेकों ने व्रत/प्रत्याख्यान स्वीकारे । कुव्यसनों का परित्याग कर सदाचारी बने । मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यक्त्व को ग्रहण किया। विक्रम संवत् १६६२ में श्रद्धेय श्री कांशीरामजी महाराज के आचार्य - पद-प्रदान के शुभ अवसर पर होशियारपुर पधारे थे तो आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर वहाँ के श्रीसंघ ने तथा होशियारपुर की जनता-जनार्दन ने आपको “प्रसिद्ध वक्ता" की पदवी से मंडित किया । प्रसिद्धवक्ता श्री जी में साहित्य एवं शिक्षण संस्थाओं तथा रचनात्मक संस्थानों के प्रति आदर भाव था । साहित्य हृदय की तमिस्रा को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाता है । साहित्य समाज का दर्पण है, साहित्य समाज का प्रखर आदित्य है । अतः श्रद्धेय श्री के मानस में साहित्य के प्रति इस प्रकार की धारणा थी- “साहित्य एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से व्यक्ति धर्म की ओर आकृष्ट होता है प्रवर्त्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज Jain Education International श्रमण परंपरा का इतिहास तथा समाज के कर्तव्यों के प्रति सजग रहने की पाठक को प्रेरणा मिलती है । ” आपश्री के सद् उद्बोधनों से ही शिक्षा निकेतन, साहित्य - प्रकाशन, पुस्तकालय, औषधालय, धर्मस्थल उपाश्रय आदि स्थापित किये। समाज के कर्णधारों ने उदार हृदयी श्रावकों द्वारा संचालित जन सेवा की प्रतीक ये धार्मिक संस्थाएं आज भी पंजाब आदि प्रान्तों में समाज-सेवा कर रही हैं। पण्डितरत्न पूज्य प्रवर्तक श्री शुक्लचन्द जी महाराज आजीवन अमृत बांटते रहे, संघ में, समाज में, श्रमणों में श्रमणियों में, आबालवृद्ध में । वे अमृतपुरुष थे। अमृत के अतिरिक्त देने के लिए उनके पास अन्य कुछ न था । विषपात के क्षण आते तो वे स्वयं आगे बढ़कर विषपान करते थे। उनके जीवन में अनेक ऐसे क्षण आए जव उन्होंने हंसते-मुस्कुराते विषमताओं के विष को अमृत मानकर कण्ठ में धारण कर लिया परन्तु संघ और समाज को उसके दुष्प्रभाव से बचाकर रखा। एकता के लिए आप छोटों के सामने भी झुक जाते थे । गृहस्थ जीवन के अपने नाम "शंकर" को मुनि बनकर गुणरूप में जीवन्त किया था । युवाचार्य पद-प्रदान : आचार्य श्री काशीराम जी म. के देहावसान के पश्चात् पंजाब श्रमणसंघ में नेतृत्व के लिए उथल पुथल होना स्वाभाविक ही था। संघ के वरिष्ठ एवं प्रमुख संतपुरुषों एवं श्रावकों की समिति बनी। ऐसे भयावह समय में भी पण्डित मुनि श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज ने अपनी दूरदर्शिता से समाज को विखण्डित होने से बचाया। आपने अपने कार्य कलापों से समाज के हृदय रूपी सिंहासन पर स्थान बना लिया। उसी के फलस्वरूप समाज ने आपको भावी नायक स्वीकार किया तथा ससम्मान युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । युवाचार्य आचार्य के कार्य का संविभागी, परामर्शक एवं भावी आचार्य होता है । For Private & Personal Use Only ३६ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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