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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के नेतृत्व में युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर आपने वि.सं. २००३ से लेकर २००६ तक इस पद पर अत्यन्त दीर्घदर्शिता एवं कुशलता के साथ निर्वहन किया। प्रान्त मन्त्री : श्री अखिल भारतीय श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स के अथक प्रयासों से अखिल भारतीय स्तर पर एक महासम्मेलन सादड़ी (राजस्थान) में आयोजित हुआ। यह समय था वि.सं. २००६ अर्थात सन १६५२। यवाचार्य श्री जी भी इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। सर्वप्रथम आपने ही युवाचार्य पद का परित्याग कर प्रान्तीय सम्मेलन के निश्चय की घोषणा करते हुए महासंघ में विलीनीकरण का श्री गणेश किया। इसी सम्मेलन में प्रान्तीय आधार पर मंत्रीमण्डल व्यवस्था बनी और आपको पंजाब श्रमण संघ के मंत्री रूप में चुना गया। द्वितीय सम्मेलन हुआ बीकानेर शहर भीनासर में। पुनः प्रान्तमंत्री का दायित्व आपको ही सौंपा गया। आप श्री ने अपने उदार गंभीर एवं समन्वय स्वभाव एवं नीति के बल पर इस पद का कर्तव्य निष्ठा के साथ निर्वहन किया। आप आचार्य श्री द्वारा नियुक्त पंचसदस्यीय संघ संचालक उच्च समिति के भी सदस्य नियुक्त हुए। का कार्य आप श्री को सोंपा गया। साथ ही साथ आचार्य श्री जी के परामर्शदातृ मण्डल के सदस्य भी मनोनीत हुए। ___अधिशास्ता आचार्य होता है और उसके बाद प्रशासन दृष्टि से दूसरा स्थान प्रवर्तक का होता है। आपने इन दोनों पदों को जीवन पर्यन्त कुशलता पूर्वक निभाया। सेवा धर्मो परम गहनो ..... श्रमण समाज में पण्डित वर्य श्री शुक्लचन्दजी म. ने तथा उनके संघाड़े के संतों ने सेवाभावी के रूप में विशिष्ट पहचान बनाई थी। सेवा धर्म वस्तुतः सम्यक् धर्म है। रुग्ण, तपस्वी, वयोवृद्ध साधु की सेवा न करना असंयम और प्रमाद का कारण बनता है। आगमों में तो ऐसे असंयमी संतों के लिए प्रायश्चित तक का विधान है। अगर श्रमण आवश्यक से आवश्यक कार्य, अथवा कठिन से कठिन तप में भी संलग्न है तो भी उसका प्रथम कर्त्तव्य सेवा का है। सेवा का मार्ग वस्तुतः कण्टकाकीर्ण है। उपशमभावी, वैयावृत्यी साधक ही इस पथ का अनुसरण कर सकता है। पूज्य प्रवर्तक श्री ने सेवा धर्म को समग्रभावेन आत्मसात् किया था। इस सेवाव्रत के कारण कभी कभी उन्हें आलोचना एवं प्रतिक्रिया का भी शिकार होना पड़ता था। परन्तु आप कदापि सेवा संकल्प से पीछे नहीं हटे। अविराम अविश्रान्त इस महामार्ग पर आगे, और आगे बढ़ते रहे। आप कहा करते थे- जिस समाज में वृद्ध और रुग्ण की सेवा नहीं की जाती है वह समाज स्वयं वृद्ध और रुग्ण है। ऐसा समाज जीवित नहीं रह सकता है।" आपने सेवा धर्म के मर्म को सरल करके दिखाया। आपके मन में किंचित् भी ग्लानि, अहं और कठोरता नहीं थी। अपने जीवन के उत्तरार्ध में अपनी सेवा की परवाह नहीं करके जहां मांग होती वहीं अपने साथी संतों को भेज प्रवर्तक: यह एक शास्त्रीय पद है। इसका अर्थ है धर्म-संयम में स्वयं प्रवृत्त रहकर अन्य को, संघ को/श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध श्री संघ को प्रवर्तन कराना। अर्थात् संयम में जोड़े रखने वाला अधिकारी। वि.सं. २०२० में राजस्थान के नगर अजमेर में अखिल भारतवर्षीय वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के शिखर सम्मेलन में मंत्री मण्डल व्यवस्था ने प्रवर्तक व्यवस्था का स्वरूप लिया। उस समय पंजाब के लिए धर्म-चारित्र्य के प्रवर्तन ४० प्रवर्तक पं.र. श्री शक्लचन्द्रजी महाराज | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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