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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि शंकर गुरुचरणों में रहकर धार्मिक ज्ञानार्जन करने तपस्वीरत्न के स्वर्गवास के पश्चात् आचार्य श्री लगा। प्रवचन के समय जिनवाणी श्रवण करता। शंकर सोहनलालजी महाराज ने नवदीक्षित मुनि श्री शुक्लचन्द्रजी की कई भ्रामक धारणाएं दूर हुई। वीरवचनों पर श्रद्धा को युवाचार्य श्री कांशीरामजी महाराज का शिष्य घोषित उत्पन्न हुई। वह विलक्षण प्रतिभा का धनी तो था ही, कर दिया। पण्डित रामजीदास भी संसार से उदासीन रहने कुछ ही दिनों में सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल लगे। दुनियाँ को बहुत निकट से देखा उन्होंने । वे सोचते कण्ठस्थ कर लिए। आचार्य प्रवर स्वयं अवकाश के क्षणों थे-“धन्य है, शंकर को। शंकर से शक्ल में परिवर्तित हो में जैन धर्म, जैन साधक तथा जैन साधना का ममे समझाता गया"। तदनन्तर विक्रम संवत १६८३ की पावन वेला में आचार्यश्री ने समय की अनुकूलता देखते हुए शीघ्र ही संयम ग्रहण कर अणगार धर्म में प्रवृत्त हो गए। आचार्य उसे संयम प्रदान करने का संकेत दिया। मुमुक्षु शंकर के। श्री कांशीरामजी महाराज के चरणों में सुदीर्घ समयावधि चेहरे पर जैसे सूर्य की किरणे पड़ते ही सैंकड़ों कमल खिल तक रहकर मुनि श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज ने ज्ञानार्जन गये हों वैसे ही प्रसन्नता खिल गई। संघ भी उत्फुल्ल था किया, आगम की वाचनाएं ली, गुरू-मुख परम्परा से ज्ञान कि आचार्य प्रवर दीक्षा-समारोह का शुभावसर हमें ही ग्रहण किया। अनेक अनुभवों के सुधारस का पान किया। प्रदान करेंगे। वे भी दीक्षा-दिवस घोषित होने की प्रतीक्षा यथा गुरु तथा शिष्य की भाँति आपके जीवन में आचार्य करने लगे। अंततः वह शुभ दिन, पावन वेला, मंगल श्री कांशीरामजी महाराज के गुण प्रतिबिम्बित होने लगे। घड़ी सुखद क्षण आ ही गये। आचार्यश्री ने मुमुक्षु शंकर सन् १६४६ अम्बाला में आचार्य श्री कांशीराम जी महाराज को जैन भागवती दीक्षा प्रदान करने का दिवस आषाढ़ शुक्ला १५ विक्रम संवत् १६७३ का सुनिश्चित किया। संसघ विराजमान थे। संवत् २००२ की ज्येष्ठ कृष्णा श्रीसंघ में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई। लाला शौरीलालजी सप्तमी, शनिवार को पूज्य श्री की शारीरिक स्थिति अत्यंत जैन के पिताश्री मुमुक्षु शंकर के धर्मपिता बने। परम शिथिल हो गई। श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री सोहनलालजी महाराज ने सर्वप्रथम ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी रविवार को जब सवितरि मध्याकाश चतुर्विध संघ की साक्षी से श्री संघ, धर्म-पिता तथा पंडित में पहुँच कर प्रचण्ड-ताप विकीर्ण कर रहे थे तभी यह रामजीदास से दीक्षा विषयक अनुमति चाही। अनुमति के महामना अपनी लौकिक क्रिया समेट कर ठीक बारह बजे प्राप्त होते ही चउवीसत्थव की प्रक्रिया सम्पन्न करवाकर महाप्रयाण यात्रा पर प्रस्थित हो गया। यावज्जीवन सामायिक की विधि करवाई तदनन्तर पुनः श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज जन्मना ही जाति से ब्राह्मण चतुर्विध संघ की साक्षी से करेमिभंते का पाठ पढाकर उस भव्यात्मा को श्रमण - दीक्षा प्रदान की। नाम घोषित थे। आपका वार्तालाप सरल किन्तु पाण्डित्यपूर्ण था। किया मुनि शुक्लचंद्र महाराज। संयम चदरिया प्रदान करने व्याख्यान शैली मधुर, सरस एवं सरल होते हुए भी आगमके बाद नवदीक्षित मुनि शुक्लचन्द्रजी को आचार्य सम्राट ज्ञान से परिपूर्ण थी। आपको श्रद्धेय आचार्य श्री ने तपोनिधि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज के शिष्य रूप में सौंप सोहनलालजी महाराज ने “पण्डित” कहना आरंभ किया। दिया किंतु उनकी हार्दिक भावना थी कि युवाचार्य श्री तदनन्तर समाज ने आपको “पण्डित-रत्न" की उपाधि से कांशीराम जी महाराज का अंतेवासी बनाया जाए क्योंकि । सम्मानित किया। तत्व चर्चा आक्षेप निवारण आदि में तपस्वीजी महाराज और युवाचार्य श्री जी में अगाध स्नेह आप की प्रतिभा पाण्डित्य-सम्पन्न होने से यह पद आपके था। अनुरूप था। प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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