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श्रमण परंपरा का इतिहास
होता। ब्रह्मचर्य से भी ब्राह्मण कहलाता है। अब शंकर सच्चा ब्राह्मण बन गया। आजीवन ब्रह्मचारी बने रहने की प्रतिज्ञा कर शंकर अपने ससुराल (गाँव-हुडिया) की ओर प्रस्थित हुआ। थोडे ही अंतराल के बाद शंकर अपने ससुराल की दहलीज पर आ खड़ा हुआ। अचानक आये देख
कर श्वसुरजी कुछ शंकित हुए। उठे, स्वागत किया, मधुर वचनों के माध्यम से। ___ शंकर ने भी बड़ों को अभिवादन किया। छोटों को प्रेम भरी दृष्टि से निहारा । उसे यथास्थल बिठाया। श्वसुरजी ने विनम्र शब्दों में कहा - “आज आपका इधर पर्दापण कैसे हुआ? समाचार भिजवा देते किसी के साथ । मैं स्वयं ही उपस्थित हो जाता। कहिए क्या कार्य है?" शंकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा-“श्रीमन्त! मैं आपसे ही वार्तालाप करने आया हूँ और..... । “और क्या? जामाता राज” । “और में अपना सबध विच्छेद करने आया हूँ। आप अपनी पुत्री का पाणिग्रहण कहीं अन्यत्र निश्चित कर लें। मैं आपकी पुत्री से कदापि विवाह नहीं कर पाऊंगा। आज से आप मुझे जामाताराज कहकर भी संबोधित नहीं करें। केवल शंकर ही पुकारा करें"।
“मैंने आज से ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा ग्रहण करली है। अतः अव मेरा और उसका मार्ग विभिन्न हो गया है”। “आपको कष्ट हुआ होगा, मेरे इस प्रकार के आचरण से क्षमा चाहता हूँ-आप से एवं सभी से"। माता की पुत्रवधु के शीघ्र घर आने की आकांक्षा पर तुषारापात हुआ। नवयौवन के स्वप्न चूर-चूर हो गए। शंकर लगभग दो वर्ष तक पितृपक्ष और ससुराल पक्ष से जुझता रहा। उसे अपने निश्चय से कोई भी डिगा नहीं पाये। पितामह, चाचा, माता, श्वसुर आदि ने विभिन्न तरीकों से समझाना चाहा परंतु शंकर ने स्पष्ट कह दिया सभी को कि मैं अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहूँगा। वह सन्यासी की भाँति अपना जीवन व्यतीत करने लगा।
संसार में रहते हुए व्यापारिक कार्य करते हुए भी वह विरागी-सा रहने लगा।
पंडित आनंदस्वरूपजी अत्यंत वृद्ध हो चुके थे। काल का निमंत्रण आ चुका था और वे निश्चित समय पर हमेशा-हमेशा के लिए चिर निद्रा में सो गये। शंकर को पितामह की मृत्यु ने झकझोर कर रख दिया । वह प्रतिपल चिंतन करता रहता - क्या यही है जीवन?.... क्षणभंगुर नश्वर! पानी के बुदबुदे की तरह। उसके मन में सच्चा वैराग्य अंकुरित हुआ। मन ही मन निश्चय किया संसार से पूर्णरूपेण विरक्त हो जाने का। मोहमाया के दल-दल से बाहर निकल जाने का। स्वार्थों की वृत्ति से उपर उठ जाने का। तदनुसार ही शंकर अपनी जीवन प्रवृत्तियाँ बदलता जा रहा था। शंकर के जीवन-प्रवाह का तेवीसवां वसंत प्रारंभ हो चुका था।
शंकर के ही निकट के पारिवारिक चाचा एक और थे-पंडित रामजीदास । सात्विक प्रवृत्ति के धनी। संतसमागम के व्यसनी। वे व्यापारार्थ अमृतसर आया करते थे। जैन आचार्यों के प्रति उनके मानस में अटूट निष्ठा थी। शंकर ने एक दिन पण्डित रामजीदास को अपनी मनोगत भावना से अवगत कराया कि मैं अब संसार से पूर्णतः विरक्त होना चाहता हूँ। चाचाजी ने तत्क्षण राह सुझा दी कि आचार्य-प्रवरश्री के चरणों मे मेरे साथ चलना, उनका उपदेश श्रवण करना संभवतः तुम्हारा मन वहीं रम जाए। दोनों यथावसर अमृतसर आये और आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित हुए। आचार्यप्रवर ने गौर से शंकर पर दृष्टिपात किया। वे समझ गये कि यह शंकर कोई कंकर नहीं अपितु खदान में से निकला हुआ हीरा है, तराशने भर की देर है। आचार्य प्रवर कुछ समय तक दोनों से वार्तालाप करते रहे। तत्पश्चात् शंकर को गुरुचरणों में ही छोड़कर पंडितजी पुनः ग्राम की ओर प्रस्थित हो गये.....!
| प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज
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