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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
अपने कर्तव्य के प्रति सजग थे। कालान्तर में नवयौवना का संबंध गोठड़ा ग्राम के धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार के सुदर्शन तथा सुयोग्य गुणवान युवक से पक्का हो गया और शादी की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई। एकदिन वह शुभ वेला, शुभ प्रसंग भी उपस्थित हो गया। घर के आँगन में शहनाई गूंजी। बारात आई और पुत्री का पाणिग्रहण समारोह सानन्द सम्पन्न हो गया। ___ समय नदी की धारा की भाँति निरंतर गतिशील था। माँ मेहताब का मन एक ऋण से उऋण होकर हल्कापन महसूस कर रहा था। अब उनके मन में एक और लालसा अंकुरित हो गई। आप जान सकते हैं, वह लालसा क्या थी? वह थी-पुत्रवधू की। शंकर अब पूर्ण रूपेण युवा हो चुका था। बीस वर्षीय हृष्ट-पुष्ट नौजवान । क्या कमी थी उसमें? सुन्दर रूप सुगठित देहयष्टि, कान्तिमय चेहरा, प्रशान्त मुखमुद्रा, व्यवहार-कुशल वाक्चातुर्य से परिपूर्ण, उद्यमी, कुशल व्यापारी, विनम्र और ज्ञानवान् तथा सद्वृत्ति- सद्गुणों - सदाचार से अलंकृत शंकर का पाणिग्रहण हुडिया ग्राम की अतीव सुंदर सुशील, स्वगोत्रीय-स्वजातीय कन्या से निश्चित कर दिया।
__परिणय प्रसंग दिन-रात के समय की धारा को पाटते हुए दिन-प्रतिदिन निकट आता जा रहा था। एक बार शंकर अपने घनिष्ठ-मित्र के यहाँ जा पहुँचा। उसका यह मित्र सन्निकटवर्ती ग्राम नाहड़ में अपने परिजनों के संग रह रहा था। मित्र-मित्र गले मिले। मित्र ने शंकर का यथोचित आदर-सत्कार किया तथा वार्तालाप में व्यस्त हो गए। अनेक प्रकार की बातें होती रही। तभी मित्र की माता ने भी उस कक्ष में प्रवेश किया जहाँ ये दोनों बातचीत करने में मशगूल थे। माता को आते देखकर शंकर उठा और उसने मातृ-चरणों में नमन किया और आशीर्वाद की चाह में उसका सिर झुका ही रहा। क्षण बीते, शंकर ने अपना सिर उपर की ओर उठाया तो आँखे
स्वतः ही माता के मुख-मण्डल पर जा टिकी। शंकर ने विनम्रता से पूछा- “माताजी! क्या आज आशीर्वाद नहीं देगी"? मित्र माता को लगा, जैसे सपनों के संसार से वह एकदम धरातल पर उतर आई हो। बोली....बेटा! "जुग जुग जीओ" |.... पर स्वर अवरूद्ध-सा था। शंकर को लगा कि माता कुछ न कुछ जरूर छिपा रही है। पुनः शंकर ने हठ करते हुए कहा - “मातृवर्य। बताइए न, आपको क्या दुःख है? दुःख का स्रोत जैसे और अधिक फूट पड़ा। अश्रुधारा का प्रवाह बढ़ गया। टप-टप मोती गिरने लगे-नयनों से। कहने लगी - "वत्स । आज तुझे देखकर विगत दिनों की एक दुखद स्मृति मस्तिष्क पटल पर उभर आई"। "क्या स्मृति है वह? “बेटा। आज जो तेरी मंगेतर है वह पहले मेरे बेटे अर्थात् तेरे मित्र की मंगेतर थी। परन्तु समय हमारे अनुकूल नहीं रहा। उन्हीं दिनों इसके पिता की मृत्यु हो गई और उन्होंने मेरे पति की मृत्यु के पश्चात् संबंध विच्छेद कर लिया। यह हमारा दर्याग्य था क्योंकि हम अनाथ और असहाय हो गए थे।"
मित्र-माता की बात श्रवण कर शंकर किञ्चित् क्षणों तक अपने आप में खोया रहा तत्पश्चात् शंकर ने उसी स्थान पर एक भीष्म प्रतिज्ञा की। “मात! मैं अब उससे कदापि विवाह नही करूंगा और न ही किसी अन्य कन्या से भी , मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। आपके चरणों की कसम" । प्रतिज्ञा के साथ ही शंकर उठ खड़ा हुआ उसके चेहरे पर विचित्र तेज की एक आभा झलक रही थी। शंकर ने शंकर की तरह गरल पीकर दूसरों का मार्ग प्रशस्त कर दिया । धन्य है, युवा शंकर को जिसने ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा ग्रहण कर भोगवृत्ति से हमेशा-हमेशा के लिए मुँह मोड़ त्याग वृत्ति की ओर कदम रखा। भगवान् महावीर के वचनों को उसने जीवन में उतार लिये। यथा-ब्राम्हण वही है जो संसार में रहकर भी काम भोगों से निर्लिप्त रहता है जैसे कि जल में कमल रहकर भी उससे लिप्त नहीं
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प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज
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