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श्रमण परंपरा का इतिहास
गुरु परम्परा प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्र जी महाराज
पंजाब प्रान्त का हरा-भरा अंचल हरियाणा। आज राजनीति का शिकार बनकर पृथक् राज्य बन गया है। उसी का जनपद जिला गुडगांवा। जिले की सबसे बड़ी तहसील रिवाड़ी। इसी धरा के सन्निकट एक ग्राम बसा हुआ है - दड़ौली - फतेहपुरी। हरितिमा का दुकूल जिसके चारों ओर तना हुआ था। ग्राम की मनोहारी छटा थी - नयनाभिराम तथा चित्ताकर्षक । जन-धन आदि सभी प्रकार से समृद्ध ।
इसी पुण्य धरा पर कुलीन ब्राह्मण परिवार निवास करता था। गौड़ गौत्रीय स्वनामधन्य पण्डित श्री आनन्दस्वरूपजी इस परिवार के मुखिया थे। सादगी से परिपूर्ण जीवन परंतु उच्चविचारों से समृद्ध । सभी के चहेते। भद्रात्मा किन्तु व्यवहार कुशल व्यक्ति थे, वे। इन्हीं के प्रथम आत्मज थे - श्री बलदेवराज जी। पिता के चरणानुगामी, आज्ञाकारी विनयीपुत्र । आपकी जीवन संगिनी थी-श्री मेहताब कौर। आप धर्मशीला, पतिपरायणा एवं सुशीला धर्मपत्नी थी। श्री मेहताब कौर ने एक पुत्रीरल को जन्म दिया। पुत्री चंद्रमा की कला की भाँति निरंतर बढ़ने लगी। समय आया और दस्तक देकर चला गया।
श्री मेहताब कौर पुनः सगर्भा हुई। समयावधि पूर्ण हुई....गर्भावस्था की। मेहताब कौर ने सुन्दर सलौने पुत्र रत्न को जन्म दिया। यह पुनीत दिवस था - विक्रम संवतीय १६५१ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी का। बालक का नामकरण किया गया 'शंकर'। बालक शंकर सभी के नैनौं का प्यारा हृदय का दुलारा। हँसी-खुशी, लालन- पालन के साथ शंकर की बाल्यावस्था व्यतीत हो रही थी।
होनहार विरवान के होत चिकने पात" की उक्ति अनुसार बालक विचक्षण था। अपने पूर्वजों के पदचिन्हों का अनुकरण करता हुआ शंकर आठवर्ष की अल्पायु में मुंडिया, हिन्दी, संस्कृत तथा गुजराती भाषाओं का विद्यार्थी बनकर ज्ञानार्जन करने लगा। निरंतर तथा अहर्निश ज्ञान की लगन के कारण वे क्रमशः विद्यापथ की ओर अग्रसर होते गये। विद्यार्जन की अवधि के साथ-साथ शंकर की किशोरावस्था व्यतीत हो रही थी। उसने पिता का आज्ञाकारी पुत्र बनकर पिता के कार्यों में हाथ बँटाने की प्रक्रिया का श्रीगणेश किया। जिस त्वरित गति से विद्यार्जन किया था उसी गति से वह व्यवसायी व सफल उद्योगी भी बनने लगा। ___पंडित बलदेवराज का यकायक निधन हो गया। संयोग-वियोग में परिवर्तित हो गया, खुशियों की जगह विषाद ने ले ली। घर में चारों ओर विरानगी छा गई। अव कारोबार व घर का कार्यभार पण्डित चुन्नीलाल जी के सिरपर आ गया। कर्तव्य के साथ इस भार का वहन करने लगे। तेरह वर्षीय किशोर शंकर को पितृवत् प्यार देने लगे। पंडित चुन्नीलालजी शंकर को अब अत्यधिक व्यस्त देखना चाहते थे। अतः वे व्यापार का कार्यभार उसे ही सौंपे जा रहे थे। शंकर अपने को सुपुर्द गुरुतर भार का सुचारु रूप से वहन करने लगा। युवकोचित कार्य कौशल उसमें समाविष्ट होता जा रहा था।
पुत्री पराया धन है। वह और कितने दिन की मेहमान रहेगी? उसे भी तो बाबुल का घर छोड़ पिया के घर जाना ही पड़ेगा। माता को तो पुत्री के हाथ पीले करने की चिंता थी ही परन्तु पितामह और चाचा भी
| प्रवर्तक पं.र. श्री शुक्लचन्द्रजी महाराज
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