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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
बाल्यावस्था से ही आप अन्तर्मुखी रहे हैं। समृद्धि आपकी बुद्धि को कभी भ्रमित नहीं बना पाई। विद्यालय की शिक्षा पूर्ण कर आपने महाविद्यालय और विश्वविद्यालय की परीक्षाएं उत्तीर्ण की। दर्शन शास्त्र से एम.ए. की डिग्री लेकर भी आपकी दृष्टि भौतिकता की चकाचौंध से अस्पर्शित बनी रही। विविध देशों की संस्कृति, उनके आचार-विचार एवं आदर्शों के अध्ययन के लिए आपने जेनेवा, टोरन्टो, कुवैत, अमेरीका आदि कई देशों की यात्राएं कीं। आखिर आप इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जिनमार्ग ही वह मार्ग है जो जीवन को सही दशा और दिशा दे सकता है। इसी विश्वास के साथ तीस वर्ष के भरे-पूरे यौवन में १७ मई १६७२ के दिन अपनी तीन भगिनियों के साथ आपने जिनदीक्षा का महामंत्र ग्रहण किया। पंजाब केसरी श्रद्धेय श्री ज्ञानमुनि जी म. को आपने जीवन निर्माता गुरु के रूप में चुना । ___ मुनित्व की चादर ओढ़ने के पश्चात् भी आप शिक्षा से विमुख नहीं हुए।
Doctrine of liberation in Indian religions विषय पर शोध प्रबन्ध लिख कर आपने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
आचार्य देव श्री आनन्दऋषि जी म. की सन्निधि में सन् १९८७ में महाराष्ट्र के पूना नगर में वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ का बृहद् सम्मेलन आयोजित हुआ। सैकड़ों
की संख्या में साधु-साध्वी इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। इसी अवसर पर आचार्य भगवन्त ने आपको युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। एक सुयोग्य और विद्वान मुनिराज को भावी संघशास्ता के रूप में पाकर श्रीसंघ प्रफुल्लित बन गया।
आचार्य देव के महाप्रयाण के पश्चात् उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी महाराज आचार्य बने और फिर आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. के स्वर्गारोहण के पश्चात् आप श्री आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। अहमदनगर में दिनांक ६.७.६६ को श्रीसंघ ने आपको अपना सविधि आचार्य घोषित किया। वर्तमान में आप बृहद् साधु समुदाय वाले श्रमण संघ के अनुशास्ता हैं। आपके कुशल अनुशासन में श्रमण संघ चहुंमुखी विकास के पथ पर अग्रसर है।
आपके जीवन की एक और बड़ी विशेषता है - ध्यानयोग। पिछले कई वर्षों से आप ध्यान पर विशेष बल देते आए हैं। आपकी दिनचर्या का अधिकांश भाग ध्यान समाधि में तथा उस पर चिन्तन मनन लेखन एवं तद्विषयक शोध में व्यतीत होता है। आप नियमित रूप से ध्यान शिविरों का आयोजन करते हैं। हजारों लोग इन शिविरों में सम्मिलित होकर आत्मानुभव करते हैं।
ध्यान के साथ-साथ तप भी आपके जीवन का एक अनिवार्य अंग है। आप वर्षों से एकान्तर तप कर रहे हैं।..
0 वह गुरु हमारे कुल का है, हमारे धर्म का है। ये हमारा ढर्रा है, हमारा सम्प्रदाय है, हमारा लक्ष्य है। ये हमारा-हमारा जो मम भाव है इस ममभाव के रहते अक्सर हम सत्य को झुठला देते हैं। हम अपने ममभाव में, राग भाव में जुड़कर ही अपने धर्म को, सम्प्रदाय को, परम्परा को अच्छा बताते हैं । उसके साथ बराबर जुड़े रहते हैं। लेकिन जब सत्य का दर्शन होता है, उसकी झलक पड़ती है तो विचार करते हैं कि भले ही अपना हो - मगर दूषित है तो अपूर्ण को अपूर्ण कहने में कोई बुराई नहीं है।
- सुमन वचनामृत
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अ.भा.वर्ध.स्था.जैन श्रमणसंघ के आचार्यों का संक्षिप्त जीवन परिचय
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