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श्रमण परंपरा का इतिहास
पूना नगर में आपने अपना उत्तराधिकार श्री देवेन्द्र मुनि जी म. व श्री शिवमुनि जी म. को क्रमशः उपाचार्य और युवाचार्य के रूप में प्रदान किया।
आप श्री ने अपनी ७६ वर्ष की संयमीय साधना काल में भारतवर्ष के अनेक प्रान्तों की पदयात्रा की और जिनवाणी की गूंज देश के कोने-कोने तक अनुगुञ्जित की।
दिनांक २८ मार्च सन् १६६२ में अहमदनगर में नश्वर देह का त्याग कर आप देवलोक वासी बने। आप श्री के पश्चात् पूज्यश्री देवेन्द्र मुनिजी म. श्रमणसंघ के आचार्य बने। (३) आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज
आपका जन्म राजस्थान प्रान्त के उदयपुर नगर में दिनांक ७-११-१६३१ शनिवार, कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (धनतेरस) को सम्पन्न जैन बरड़िया परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम श्रीमान जीवनसिंहजी बरड़िया और माता का नाम श्रीमती तीजाबाई था। इनके जीवन में जैन धर्म के संस्कार कूट-कूट कर भरे हुए थे। परिणामतः जिनत्व के संस्कार आपको बाल्यकाल में ही प्राप्त हो गए
अल्पायु में ही संयम के कण्टकाकीर्ण राहों पर आप पूर्ण निर्भीकता और निष्ठा से बढ़े। अध्ययन में आपकी विशेष रुचि थी। शीघ्र ही आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत
आदि भाषाओं के मर्मज्ञ बन गए। आपने जैन-जैनेतर दर्शनों का गम्भीर अध्ययन किया। उसके बाद आपने साहित्य साधना के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। कलम कला के महान् कलाकार के रूप में आप जैन जगत् में प्रतिष्ठित अर्चित हुए। अपने जीवन काल में आपने लगभग साढ़े तीन सौ ग्रन्थों की रचना की। 'श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री' के नाम से जगत में विख्यात हुए। __सन् १९८७ में पूना नगर में आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषि जी म. ने बृहद् साधु सम्मेलन आहूत किया। उसी समय आपको उपाचार्य पद प्रदान किया गया। आचार्य देव के स्वर्गगमन के पश्चात् आप श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य बने । २८ मार्च १६६३ को आपकी जन्मस्थली उदयपुर नगरी में ही आपको आचार्य पद की प्रतीक चादर भेंट की गई। इस पद पर आप लगभग छह वर्षों तक विराजमान रहे। इस बीच आपने उत्तर भारत के समस्त प्रमुख नगरों की पदयात्रा करते हुए अनुमानतः आठ हजार कि.मी. का प्रलम्ब सफर किया।
बम्बई घाटकोपर में २६ अप्रैल १६६६ की सुबह साढ़े आठ बजे आपने अपने संयमीय जीवन की अन्तिम सांस ली। समाधि/संथारे सहित आपका देवलोक गमन हुआ। (४) आचार्य प्रवर डॉ. श्री शिवमुनि जी महाराज
आपका जन्म पंजाब प्रान्त के जिला फरीदकोट के अन्तर्गत मलौट मण्डी में एक समृद्ध और सुसंस्कारी ओसवाल परिवार में १८ सितम्बर सन् १६४२ में हुआ। श्रीमान चिरंजीलाल जी जैन का पितृत्व तथा श्रीमती विद्या देवी का मातृत्व धन्य बन गया।
थे।
बाल्यावस्था में ही आपको पित-साए से वंचित हो जाना पड़ा। आपकी धर्मप्राण माता ने वीरता और दृढ़ता से दुर्भाग्य को दलित करते हुए आपका लालन-पालन किया। नौ वर्ष की अवस्था में आपको उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म. का सान्निध्य प्राप्त हुआ। एक मार्च १६४१, शनिवार के दिन आपने खण्डप जिला बाडमेर में मात्र नौ वर्ष की अवस्था में जैन आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आपके साथ ही आपकी माता और ज्येष्ठ भगिनी ने भी दीक्षा ली थी।
अ.भा.वर्ध.स्था.जैन श्रमणसंघ के आचार्यों का संक्षिप्त जीवन परिचय
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