________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
अपना आचार्य चुना। एतदर्थ वि. सं. २००३, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी महावीर जयन्ती के पावन प्रसंग पर श्री संघ ने आपको आचार्य पद की प्रतीक चादर भेंट की।
आचार्य प्रवर श्री सोहनलाल जी म. के संधैक्य के प्रयत्नों को पुनः वि.सं. २००६ में अक्षय तृतीया के दिन राजस्थान के सादड़ी नगर में मंजिल मिली। बृहद्साधु सम्मेलन हुआ। सभी पदवीधारी मुनियों ने सहर्ष अपने- अपने पद छोड़ दिए। “अखिल भारतीय वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" की स्थापना की गई। इसी अवसर पर आप श्री जी को श्रमण संघ का प्रथम पट्टधर आचार्य मनोनीत किया गया।
आपके शासन काल में श्रमणसंघ का चहुंमुखी विकास हुआ। पूर्व से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक समस्त स्थानकवासी समाज एक हुई। साम्प्रदायिक संकीर्णताएं समाप्त हुईं। इस पद पर आप लगभग नौ वर्षों तक प्रतिष्ठित रहे। वि.सं. १६६२, माघकृष्णा नवमी-दशमी की मध्य रात्री को लुधियाना नगर में पूर्ण समाधि संथारे सहित आपने नश्वर देह का त्याग कर दिया।
आप श्री स्था. श्रमण संघ के प्रथम पट्टधर तथा आर्य सुधर्मा स्वामी की परम्परा के ६१वें पट्टधर आचार्य थे। (१२) २ आचार्य सम्राट् श्री आनन्द ऋषि जी महाराज
__ आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज के स्वर्गगमन के पश्चात् उनके पाट पर आप श्री मनोनीत हुए। अर्थात् वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के आप दूसरे पट्टधर आचार्य बने। आपके जीवन की संक्षिप्त परिचय रेखाएं निम्न हैं
अहमदनगर के निकटवर्ती चिंचोड़ी ग्राम में वि.सं. १६५७, श्रावण शुक्ला १ तदनुसार २६ जुलाई सन् १६०० के शुभ दिन आपका जन्म हुआ। गुगलिया गौत्रीय श्रीमान देवीचन्द का पितृत्व और श्रीमती हुलासा बाई का मातृत्व धन्य हो उठा।
आपका बचपन सुखद और सरस रहा। जब आप तेरह वर्ष के हुए तो एक दिन अचानक उदरशूल के कारण आपके पिता का देहान्त हो गया। इस अकस्मात् पितृ-विरह ने आपके हृदय को बींध दिया। जीवन की अस्थिरता का चित्र आपने अत्यन्त निकट से देखा। आपका हृदय वैराग्य भाव से पूर्ण हो गया। वैराग्य पूर्णहृदय के साथ आप मंगलमूर्ति श्री रत्नऋषि जी महाराज के चरणों में पहुंचे। पूज्यवर्य के श्री चरणों में आपने वि.सं. १८७०, मार्गशीर्ष शुक्ल ६ को मिरी ग्राम में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण की।
गुरू सेवा और ज्ञानाराधना में आपने स्वयं को अर्पित कर दिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के आप अधिकारी विद्वान् बन गए। आपने जैन-जैनेतर वाङ्गमय का पारायण किया। आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थों की रचना भी की। लेखन के साथ-साथ आपकी वक्तृत्व कला भी आकर्षक और प्रभावक थी।
आपके जीवन की यह विशेषता थी कि आप संयम पालन में कठोर और व्यवहार में अत्यन्त मृदु थे। संघसमाज पर आपकी पकड़ थी। फलतः वि.सं. १६८९, माघकृष्णा ६ को आपको ऋषि सम्प्रदाय का आचार्य चुना गया । वि.सं. २००६ में आप अखिल भारतीय श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। इतना ही नहीं, वि.सं. २०१६, माघ कृष्णा ६, तदनुसार ३० जनवरी १६६३ को आप श्रमणसंघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य बने।
आप श्री लगभग तीस वर्षों तक श्रमणसंघ अनुशास्ता रहे। आपका शासन काल सुखद, मंगलमय और जिन शासन के गौरव में अभिवृद्धि करने वाला रहा। आप संगठन के प्रबल समर्थक रहे। कठिन क्षणों में भी आपने अपनी दूरदर्शिता से संघ को एक रखा। सन् १९८७ में
३२
अ.भा.वर्ध.स्था.जैन श्रमणसंघ के आचार्यों का संक्षिप्त जीवन परिचय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org