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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास शिष्य भीखमजी को वि.सं. १८१५ में जैन सिद्धान्त की (३) पूज्य श्री जयमलजी महाराज की सम्प्रदाय : प्रचलित कतिपय अति गूढ मान्यताओं को लेकर शंका पूज्य आचार्य श्री जयमलजी महाराज का जीवन वृत्त उत्पन्न हुई। उनकी शंकाओं के समाधानार्थ पूज्य श्री वस्तुतः तोरण से मुडे हुए महादमीश्वर नेमिनाथ भगवान् रघुनाथजी महाराज ने निरन्तर दो वर्षों तक भीखमजी “भीखणजी म.” को विभिन्न प्रकार की युक्तियों प्रयुक्तियों और महान् इन्द्रिय-निग्रही दुष्कर-दुष्कर कार्यकारी आर्य से समझाने का प्रयास किया कि वस्तुतः पुण्य प्रकृतियां । स्थूलभद्र की स्मृति दिलाने वाला उत्कट जीवन चरित्र है। पाप प्रकृतियां दोनों ही स्वर्ण शृंखला और लोह शृंखला के आचार्य श्री जयमलजी महाराज का जन्म संवत् समान प्राणी के लिये संसार में भवभ्रमण कराने वाली हैं १७६५ भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी को जोधपुर क्षेत्र के और इन दोनों प्रकार की शृंखलाओं को काटकर इनके मेड़ता परगने में अवस्थित लांबिया ग्राम में हुआ। पिता बंधन से अपने आपको मुक्त करने वाला साधक ही का नाम मोहनदासजी मेहता-समदड़िया और माता का नाम अन्ततोगत्वा केवली समुद्घात की प्रक्रिया के माध्यम से था महिमादेवी। इनके पिता कामदार थे। २२ वर्ष की पूर्णतः भवबन्धन मुक्त होता है तथापि पुण्य प्रकृतियां अवस्था में आपका विवाह रीयां “बड़ी” निवासी शिवकरणजी प्रत्येक प्राणी को मुक्ति पथ पर आरूढ करने और उसे मूथा की सुपुत्री लक्ष्मीदेवी के साथ हुआ। मुक्ति की ओर अग्रसर करने में एक प्रकार के सबल सम्वल के रूप में सहायक होती हैं। भयावहा भवाटवी में __गौने से पूर्व व्यापारार्थ मित्रों के साथ मेड़ता शहर दिग्विमूढ हो इतस्ततः भटकने वाले प्राणी को संसार की आये। बाजार बन्द देखकर सन्तदर्शन एवं प्रवचन श्रवण भीषण भवाटवी के उस सन्धिस्थल तक पहुंचाने में पुण्य के अभिप्राय से धर्म स्थानक में गये। वहां स्थानकवासी प्रकृतियां प्रकाश प्रदीपस्तम्भ का कार्य करती हैं अतः परम्परा के आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज की शाखा के कर्मबन्ध के निविड़ बन्ध में निबद्ध मुमुक्षु के लिये इन कर्मबन्ध के निविट बा में निकट प्रमश के लिये न आचार्य पूज्यवर श्री भूधरजी महाराज के मुख से सेठ . पुण्य प्रकृतियों को हेय न माना जाय । सुदर्शन की कथा श्रवण कर आपकी अन्तर्दृष्टि अनायास ही उद्घाटित हो गई और आपने स्वजन स्नेहियों के वस्तुत : यह एक जटिल समस्या थी, शास्त्रों के बारम्बार मना करने पर भी व्याख्यान में ही आजीवन मर्मज्ञ श्री भीखणजी की शंकाओं का समाधान नहीं हो सका। अन्ततोगत्वा गुरु और शिष्य को परस्पर एक ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। व्याख्यान समापन पर दूसरे का परित्याग करना पड़ा और श्री भीखणजी मुनि ने । उनका मन वैराग्य रंग से रंजित हो गया। माता-पिता, अपने गुरु से पृथक् तेरह पन्थ “तेरापन्थ" नामक एक भाई-बहन, सास-श्वसुर, पलि आदि सभी को आर्य जम्बूस्वामी पृथक् पन्थ का प्रचलन किया। की भांति समझाकर वि.सं. १७८७ की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया के दिन आचार्य भूधरजी महाराज से श्रमण-धर्म पूज्य धर्मदासजी के शिष्य धन्नाजी, धन्नाजी के की दीक्षा ग्रहण की। शिष्य भूधरजी और भूधरजी के शिष्य रघुनाथजी महाराज की सन्त परम्परा के श्री भीखणजी महाराज द्वारा गठित “नव परिणीता पली-लाछां देवी का गौने के समय तेरापन्थ न केवल भारत में ही अपितु देश-विदेशों में भी परित्याग कर श्रमण धर्म में दीक्षित होने वाले श्री जयमलजी आज विख्यात है। इस संघ के वर्तमान आचार्य श्री महाराज जैसा जीवन वृत्त जम्बू स्वामी के पश्चात् अन्य महाप्रज्ञ जी और युवाचार्य महाश्रमण श्री मुदित मुनि हैं। कोई उपलब्ध नहीं होता।” श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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