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श्रमण परंपरा का इतिहास
६. बोटाद ७. सायला ८. कच्छ “८ कोटि" मोटी पक्ष और ६. कच्छ “छ: कोटि" नान्ही पक्ष समुदाय।
दृढ़प्रतिज्ञ आचार्य धन्ना जी महाराज :
पूज्य श्री धर्मदासजी के द्वितीय विद्वान् शिष्य श्री धन्नाजी महाराज सांचोर निवासी मूथा बाघशाह के पुत्र थे। आपने पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज के पास वि.सं. १७२७ में श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की। श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण करते ही धन्नाजी म. ने प्रतिज्ञा की - “जब तक पूर्ण शास्त्राभ्यास नहीं कर लूंगा, तब तक एक ही पात्र तथा एक ही वस्त्र रखूगा और एकान्तर उपवास करता रहूँगा।” वे ८ वर्ष तक इस नियम का पालन करते हुए शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं निष्णात विद्वान् बन गये।
क्षेत्रों में विचरण करते रहे। उन्होंने साधु के लिये प्रयुक्त
“परीसहरिउ दन्ता,.....निग्गंथा उज्जुदंसिणो।" इस शास्त्र वचन को अक्षरशःचरितार्थ किया।
पूज्य भूधरजी महाराज दीक्षित होने से पूर्व के अपने गार्हस्थ्य जीवन में एक सुसम्पन्न श्रेष्ठिवर होने के साथ साथ बड़े ही शक्तिशाली एवं साहसी शूरमां थे। एक दिन दुर्दान्त डाकुओं से जूझते समय उनकी ऊंटनी “सांडनी" की गर्दन डाकुओं के शस्त्राघातों से कट कर कंटीले वृक्ष की शाखाओं में उलझ गई। डाकुओं पर सदा विजय दिलाने वाली अपनी उष्ट्री को तड़पते देखकर शूरवीर श्रेष्ठिवर भूधरजी का अन्तःकरण दया से द्रवीभूत हो तड़प उठा। उन्हें संसार से विरक्ति हो गई। ____ श्रमण-धर्म में दीक्षित होते ही प्रारम्भ में एकान्तर
और तत्पश्चात् कठोर तपश्चरण में द्रुतगति से अग्रसर होते होते पचौले “पांच-पांच उपवासों" के अन्तर से पारणा प्रारम्भ कर दिया। __एक बार विचरण करते हुए आप कालू नामक ग्राम में पधारे। वहां ग्रीष्मकालीन मध्याह्न समय पांच उपवास की तपस्या के साथ आप सदा नदी की प्रतप्त बालू में लेट कर सूर्य की आतापना लेते थे। विद्वान् एवं महान् तपस्वी भूधरजी की कीर्ति दिग्दिगन्त में प्रसृत हो गई। एक दिन भूधरजी कालू ग्राम के पास की नदी में मध्यान्ह के समय प्रतप्त बालुका में लेटे-लेटे आतापना ले रहे थे, उस समय एक अन्य मतावलम्बी "कथावाचक पंडित नारायणदास" ने नदी की प्रतप्त बालुका में लेटे हुए भूधरजी के सिर पर कसकर लाठी का प्रहार किया और तत्काल भाग कर कहीं अन्यत्र जा छुपा । भूधरजी के सिर से रुधिर की धारा बह चली। कठिनाई से उठकर भूधरजी महाराज ने अपने पात्र के जल से खून को साफ किया और सिर पर पट्टी बांधकर गांव में लौट आये। भूधरजी महाराज के
पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज के स्वर्गारोहण के पश्चात् आपश्री ने मारवाड़ में विचरण कर धर्म का बड़ा ही उल्लेखनीय उद्योत एवं प्रचार-प्रसार किया। सोजत निवासी मोहनोत श्री भूधरजी ने विपुल चैभव, स्त्री और पुत्र आदि के मोह का परित्याग कर वि.सं. १७७३ में पूज्य श्री धन्नाजी के पास निर्ग्रन्थ श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की। पूज्य श्री धन्नाजी महाराज ने अपनी आयु का अवसान समीप देख मेड़ता नगर के स्थानक के एक स्तम्भ की ओर इंगित करते हुए अपने शिष्यों से यह कह कर - “ओ थांवो धान खावे तो अबे ओ धन्नो धान खावे" सविधि संथारा ग्रहण कर लिया और आप मेड़ता नगर में स्वर्गारोही
हुए।
क्षमामूर्ति आचार्य श्री भूधरजी महाराज :
पूज्य श्री धन्नाजी के वगगमन के पश्चात् पूज्य श्री भूधरजी महाराज भव्य जीवों का उद्धार करते हुए विभिन्न
श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा
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