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श्रमण परंपरा का इतिहास
प्रथम शाखा के छठे आचार्य पूज्य श्री दौलतरामजी के पश्चात् पूज्य श्री लालचन्दजी महाराज से तीसरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ जो पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय के नाम से विख्यात हुई, जिसके वर्तमान आचार्य श्री नानालालजी महाराज हैं। पूज्य श्री हरजी ऋषि से बारहवें आचार्य श्री श्रीलालजी महाराज तक यह सम्प्रदाय एकता के सूत्र में आबद्ध अथवा संगठित रही। तत्पश्चात् श्री हुक्मीचंदजी महाराज की यह सम्प्रदाय दो इकाइयों में विभक्त हो गई। पहली इकाई के आचार्य हुए श्री जवाहरलालजी महाराज और दूसरी इकाई के पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज। धर्मोद्धारक श्री धर्मदासजी महाराज : ___ अहमदाबाद नगर के पार्श्ववर्ती सरखेज नगर निवासी भावसार श्री जीवदास कालीदास की धर्मनिष्ठा पत्नी की कुक्षि से वि.सं. १७०१ में श्री धर्मदासजी का जन्म हुआ। बालक आठ वर्ष की अवस्था में जब पोशाल जाने लगा उस समय केशवजी के पक्ष के लोंकागच्छीय यति श्री पूज्य श्री तेजसिंहजी का वहां पधारना हुआ। उनसे धार्मिक शिक्षा प्राप्त करते समय बालक धर्मदास को संसार से विरक्ति हो गई। पूज्य श्री तेजसिंहजी के चले जाने के कुछ समय पश्चात् कल्याणजी नामक एक पोतियाबंध श्रावक “एकलपातरी” सरखेज आये। उन्होंने उपदेश दिया कि इस पंचम आरक में निर्दोष श्रमणाचार का पालन हो ही नहीं सकता। अतः एकलपात्री पोतियाबंध श्रावक बन गये। कहीं कहीं यह उल्लेख भी उपलब्ध होता है कि धर्मदासजी आठ वर्षों तक पोतियाबंध श्रावक रहे। भगवती “वियाहपन्नति" सूत्र का वाचन करते समय जब उन्होंने पढ़ा कि भगवान महावीर का धर्म शासन २१ हजार वर्ष पर्यन्त चलेगा तो उन्होंने विशुद्ध श्रमण जीवन अंगीकार करने का निश्चय किया और सच्चे संयमी की खोज में निरत हो गये। वे सर्वप्रथम लवजी ऋषि से मिले।
तदनन्तर अहमदाबाद में धर्मसिंहजी से भी आपकी पर्याप्तरूपेण धर्मचर्चा हुई। कतिपय विषयों में विचार वैभिन्य के कारण उन्होंने किसी अन्य के पास दीक्षित न हो स्वतः ही श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् मुनि धर्मदास महाराज को तेले के पारणार्थ मधुकरी करते समय एक कुम्हार से भिक्षा में राख मिली। उस राख को ही छाछ में घोलकर श्री धर्मदासजी महाराज ने तेले की तपस्या का पारण किया। दूसरे दिन जब आप श्री धर्मसिंहजी महाराज को वन्दना करने गये तो भिक्षा में राख मिलने
और उसे मढे में मिला पी लेने की बात उनसे कही। महाराज श्री धर्मसिंहजी ने साश्चर्य धर्मदासजी महाराज की
ओर देखते हुए कहा – “महात्मन् । जिस प्रकार फैंकने पर राख सभी दिशा-विदिशाओं में फैल जाती है, ठीक उसी प्रकार आपका शिष्य-परिवार चारों दिशाओं में फैलकर आपके उपदेशों का चारों ओर प्रचार-प्रसार करेगा।"
पूज्य श्री धर्मसिंहजी महाराज द्वारा की गई यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। वि.सं. १७२१ की माघ शुक्ला पंचमी के दिन उज्जयिनी के श्रीसंघ ने बड़े समारोह के साथ श्री धर्मदासजी महाराज को आचार्य पद पर अधिष्ठित किया। आपने ६६ शिष्यों को अपने हाथ से श्रमण-धर्म की दीक्षा प्रदान की। उनमें २२ शिष्य बड़े ही प्रभावक एवं पंडित थे। आपके इन शिष्यों का परिवार स्वल्प समय में ही भारत के इस छोर के उस छोर तक चारों दिशाओं में फैल गया।
विक्रम संवत् १७५६ में पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज के एक शिष्य ने अपनी आयु का अन्तिम समय समझकर धार नगर में संथारा – “आजीवन चतुर्विध आहार का त्याग" किया। कतिपय दिनों के पश्चात् वह साधु भूख
और प्यास को सहन करने में नितान्त अक्षम हो गया और संथारे को तोड़ने के लिये उसका मन व्यग्र रूप से विचलित हो उठा। पूज्य श्री धर्मदासजी, अपने शिष्य के विचलित
श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा
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