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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि लवजी की प्रार्थनाओं को टालते रहे। परन्तु लवजी को वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में पूर्णतः रंजित देख उन्होंने अपने दौहित्र लवजी को लोंकागच्छ के यति श्री जगजी के पास दीक्षा ग्रहण करने की अनुमति प्रदान की। अन्य कतिपय पट्टावलियों में वज्रांगजी और वजरंगजी के पास दीक्षित होने का उल्लेख है। यतिधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् लवजी ने निष्ठापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। शास्त्रों में वर्णित विशुद्ध श्रमणाचार को हृदयगंम करने के पश्चात् उन्होंने अपने गुरु को क्रियोद्धार करने की प्रार्थना की गुरुजी ने जब निर्दोष श्रमणचर्या के पालन में अपनी असमर्थता प्रकट की तो लवजी गुरु की अनुमति प्राप्त कर थोमणजी और सखियोजी नामक अपने दो साथी यतियों के साथ लोंका-यति गच्छ से निकल गये और उन्होंने विक्रम संवत् १७१४ में अभिनव रूप से निर्दोष श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने अपने साथी श्रमणों के साथ घोर तपश्चरण-ध्यान-शास्त्राध्ययन एवं वीतराग प्रभु के सद्धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। बड़ी संख्या में श्रद्धालु लोग उनके सरल-सौम्य एवं मधुर व्यवहार से आकर्षित हो उनके उपदेशों को सुनने आने लगे। एक दिन जब वे एक ढूंढ़े (जीर्ण-शीर्ण-भग्नावशिष्ट घर) में ठहरे हुए थे, श्रद्धालुओं के विशाल झुण्डों को लवजी की ओर उमड़ते देख यतिगच्छीय द्वेषाभिभूत हो उन साधुओं को ढूंढ़ियाढूंढ़िया कहने लगे। क्षमानिधान, समता के सागर लवजी ने सहर्ष उनके व्यंग भरे कटु सम्बोधन को अपनी मृदुवाणी के मधु से मधुर बनाते हुए कहा – शतप्रतिशत आप लोगों का हमारे लिये यह सम्बोधन सही है। क्योंकि हमने ढूंढत ढूंढत ढूंढ लिया सब, वेद पुरान कुरान में जोई।। अन्ततोगत्वा सद्धर्म को ढूंढ ही लिया है। आपने खूब पहिचाना कि हम ढूंढिये हैं। यह सुन विद्वेषी-विरोधी हतप्रभ एवं अवाक रह गये। क्रियोद्धारक लवजी के त्याग-तप और उपदेशों से जैनधर्म का सर्वतोमुखी प्रचार-प्रसार हुआ । कालूपुर निवासी शाह सोमजी ने लवजी के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। ऋषि सोमजी के शिष्य परिवार में चार बड़े ही प्रभावक शिष्य हुए। उन चारों के नाम से आचार्य लवजी ऋषि की परम्परा की चार यशस्विनी सम्प्रदायें प्रचलित हुई, जिनके नाम इस प्रकार है(१) पूज्य हरिदासजी की सम्प्रदाय (पंजाबी) श्रमण संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्मारामजी इसी सम्प्रदाय के श्रमण श्रेष्ठ थे। (२) पूज्य कानजी ऋषि की सम्प्रदाय । इस सम्प्रदाय के साधुओं का प्रमुख क्षेत्र महाराष्ट्र रहा। स्वनाम धन्य स्व. तिलोकऋषिजी और ३२ आगर्मों के हिन्दी अनुवादकर्ता स्व. श्री अमोलक ऋषिजी महाराज इसी परम्परा के आचार्य थे। श्रमण संघ के श्रमणोत्तम आचार्य श्री आनन्दऋषिजी महाराज इसी सम्प्रदाय के थे। (३) पूज्य तारा ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय । यह खम्भात समुदाय के नाम से गुजरात में प्रसिद्ध है। (४) पूज्य रामरतनजी महाराज की सम्प्रदाय (मालवा) क्रियोद्धारक श्री हरजी महाराज : क्रियोद्धारकों में श्री हरजी महाराज महान् प्रभावक महापुरुष माने गये हैं। आपने कुंवरजी के गच्छ से निकल कर वि.सं. १६८६ के आस पास क्रियोद्धार किया। पूज्य श्री हरजी म. सा. से प्रारम्भ में कोटा सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा प्रचलित हुई। तीसरे आचार्य श्री परसरामजी तक यह परम्परा एक इकाई के रूप में रही। तदनन्तर यह दो शाखाओं में विभक्त हो गई। पहली शाखा के आचार्य पूज्य लोकमणजी महाराज और दूसरी शाखा के पूज्य श्री खेतसीजी हुए। ___ श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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