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________________ श्री जीवाजी ऋषि वि.सं. १५८५ से वि.सं. १६११ आपका जन्म सूरत नगर निवासी डोसी श्री तेजपालजी की धर्मशीला भार्या कपूरदेवी की कुक्षि से वि.सं. १५५१ की माघ कृष्णा १२ को हुआ । सं. १५७८ की माघ शुक्ला ५ के दिन आपने सूरत नगर में ऋषि रूपजी से श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की। वि.सं. १६०५ में आपको अहमदाबाद के झवेरीपाडा में आचार्य पद प्रदान किया गया। आपने सूरत नगर में ६०० घरों के सदस्यों को लोकागच्छ के अनुयायी एवं श्रावक बनाया । वि.सं. १६१३ में आपने ५ दिनों का संथारा सिद्ध होने पर स्वर्गारोहण किया। श्री जीवाजी ऋषि के स्वर्गारोहण के समय लोंकागच्छ में साधुओं की संख्या ११०० तक पहुंच गई थी किन्तु पूज्य जीवाजी ऋषि के स्वर्गस्थ हो जाने पर संघ का विघटन प्रारम्भ हुआ और यह संघ मोटी पक्ष और नान्ही " छोटी ” पक्ष इन दो भागों में विभक्त हो गया। इन दोनों पक्षों की पट्टावली यहां विस्तार भय से नहीं दी जा रही है । नान्ही पक्ष में पांचवें आचार्य शिवजी ऋषि (जीवाजी ऋषि के पांचवें पट्टधर) को बादशाह शाहजहां ने वि.सं. १६८३ की विजयादशमी के दिन पालकी सरोपाव से सम्मानित किया और इस सरोपाव के सम्मान ने केवल शिवजी ऋषि को ही नहीं अपितु लोकागच्छ के यतिमण्डल को भी छत्रधारी, शिथिलाचारी और गादीधारी बना दिया । धर्मोद्धारक श्री धर्मसिंहजी महाराज : लोकागच्छ के श्री पूज्य शिवजी महाराज के समय में श्री धर्मसिंहजी महाराज एक महान् क्रियोद्धारक हुए हैं । आपका जन्म काठियावाड़ के हालार प्रान्त के जामशहर अपर नाम 'नगर' में हुआ। आपके पिता का नाम जिनदास श्रीमाल और माता का नाम शिवावाई था । लोकागच्छ के श्री रत्नसिंहजी के शिष्य देवजी महाराज के व्याख्यानों को सुनते रहने से आपको संसार से विरक्ति श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा Jain Education International श्रमण परंपरा का इतिहास हो गई। आपने पिता से दीक्षित होने की आज्ञा मांगी किन्तु आज्ञा न मिलने के कारण आपको पर्याप्त समय तक रुकना पडा । अन्ततोगत्वा आपके सुदृढ वैराग्य से प्रभावित हो आपके पिता ने भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । शास्त्रों का अध्ययन एवं पारायण करते समय आपको जब विशुद्ध श्रमणाचार का परिज्ञान हुआ तो आपने गुरु से क्रियोद्धार करने की अथवा उन्हें अनुमति देने की प्रार्थना की। गुरु ने कहा - "मैं तो असमर्थ हूं पर यदि तुम्हारी इच्छा क्रियोद्धार करने की है तो आज की रात अहमदाबाद नगर के बाहर दरियाखान पीर दरगाह में बिताओ। कल मैं तुम्हें क्रियोद्धार करने की स्वीकृति सहर्ष दे दूंगा।” श्री धर्मसिंहजी महाराज अटूट आत्मबल के प्रसाद से इस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और गुरु की अनुमति प्राप्त कर उन्होंने क्रियोद्धार किया। आपने पार्श्वचन्द्राचार्य की भांति बोलचाल की भाषा में २७ सूत्रों पर टब्बों की रचना की । आपने हुंडी, चर्चा, टीप, यन्त्र, समाचारी आदि के अनेक ग्रन्थों की रचनाएं कीं। पूज्य श्री धर्मसिंहजी महाराज का दरियापुरी संघाड़ा आज भी बड़ा प्रसिद्ध समुदाय है । लवजी ऋषि : विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के मध्यभाग में सूरत के ख्यातनामा श्रीमन्त दशाश्रीमाल वीरजी की बाल विधवा पुत्री फूलां बाई के कोई सन्तान नहीं थी अतः श्रेष्ठिवर वीरजी ने लवजी नामक एक बड़े ही होनहार बालक को अपनी पुत्री के दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया । उपाश्रय में पढ़ते समय बालक लवजी को संसार से विरक्ति हो गई। उन्होंने अपनी माता फूलां बाई और नाना वीरजी से अनेक बार प्रार्थना की कि उन्हें वे श्रमणधर्म में दीक्षित होने की आज्ञा - अनुमति प्रदान करें। पहले तो वीरजी For Private & Personal Use Only ७ www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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