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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि स्वामी तत्कालीन शिथिलाचार निमग्न साधु मुख्यों एवं सामी “स्वधर्मी" भायां को प्रणाम,.....। "....."संवत् साधुओं ने श्री आनन्दविमल सूरि के नेतृत्व में अपनी स्वर्ण १६५३ रा भादरवा सुद १४, रविवार, तारीख २० सितम्बर, राशियों एवं मोतियों (मुक्ताफलों) को अन्धकूपों में फैंक १८६६"। अत्युग्र कठोर तपश्चरण परायण हो अपनी अपनी परम्पराओं इस प्रकार के आलेखों के उपरान्त भी महान् धर्मोद्धारक की रक्षार्थ सजग हो अहर्निश अथक परिश्रम किया।' धर्मवीर लोकाशाह अपने अनुयायियों, विरोधियों और तीसरा प्रत्यक्ष प्रमाण है - लोकाशाह द्वारा प्रतिष्ठापित । जन-जन के मन-मस्तिष्क तथा हृदय पर ऐसे छाये रहे कि परम्परा के उपासकों की प्रचुर संख्या और इस परम्परा की । वे सब बोल-चाल तथा आलेखों में जिनमती परम्परा को शाखा-प्रशाखाओं के रूप में स्थानकवासी परम्परा का “लोंकागच्छ” के नाम से ही अभिहित करते रहे। यही आर्यक्षेत्र के सुविशाल भूभाग में प्रचार-प्रसार । कारण है कि इने-गिने लोगों के अतिरिक्त कोई नहीं धर्मवीर-धर्मोद्धारक लोंकाशाह द्वारा पुनरुज्जीवित इसी जानता कि लोकाशाह द्वारा पुनः प्रतिष्ठित की गई इस यशस्विनी विशुद्ध श्रमण परम्परा में अनेक महान् आचार्य परम्परा का नाम “जिनमती” था। इस सम्बन्ध में गहन शोध से अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के प्रकाश में आने की सम्भावना है। लौकाशाह द्वारा की गई एक सशक्त, सफल, समग्र क्रान्ति के परिणाम स्वरूप श्रमण-श्रमणी वर्ग में व्याप्त जिनमती “लोंकागच्छ” परम्परा में, श्रमण भगवान् शिथिलाचार के उन्मूलन के साथ-साथ विशुद्ध शास्त्रीय महावीर के पट्टधर आचार्यों के अनुक्रम में धर्मतीर्थ की श्रमणाचार की पोषिका एक अभिनव परम्परा की लोंकाशाह स्थापना के समय से देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के आचार्य ने विधिवत् प्रतिष्ठापना की और उस अभिनव परम्परा का काल के पश्चात् शताब्दियों तक प्रचलन में रही आचार्यनाम “जिनमती” रखा गया। जैन वाङ्गमय में उपलब्ध परंपरा में विशुद्ध श्रमण चर्या का पालन करने कराने वाले कतिपय आलेखों के अनुसार लोकाशाह द्वारा पुनः प्रतिष्ठापित निम्नलिखित ८ आचार्य हुएकी गई इस श्रमण-परम्परा का नाम “जिनमती” कतिपय १. आचार्य श्री भाणजी ऋषि शताब्दियों तक प्रचलित रहा, इस तथ्य का साक्षी है-संवत् २. आचार्य श्री भद्दा ऋपि १६५३ का विनति पत्र जो लाल-भवन, जयपुर में अवस्थित ३. आचार्य श्री नूना ऋषि "आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार" में विद्यमान है। ४. आचार्य श्री भीमा ऋषि लगभग साढ़े पांच फुट के इस विनति पत्र की एतद्विषयक ५. आचार्य श्री जगमाल ऋषि कतिपय पंक्तियां इस प्रकार हैं: ६. आचार्य श्री सखा ऋषि “महान् प्रभावक आचार्य हुए" "सवा रूप श्री सिध सकल गुणधार जगत ना पूजनीक का ७. आचार्य श्री रूपजी ऋषि वि.सं. १५६८ से १५८५ जयनगर “जयपुर" सुभ ठाम वसतीआं बहुगुणी सरब ओपमा आपने वि.सं. १५६८ में पाटणनगर में २०० घरों अनूप सरावग सब जिनमती श्री देवगुरु धरम लीनक साचला के आबालवृद्ध सदस्यों को प्रतिबोधित कर “जिनमती" समगती सरब भाईसाह जोग जोधाणा “जोधपुर" सूं लिखी परम्परा अर्थात् लोंकागच्छ के अनुयायी श्रावक बनाया। १- जैनधर्म का मौलिक इतिहास – गजसिंह राठौड़ भाग ४, पृष्ठ ५८०-५८१ २- जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ४, पृष्ठ ७२६ श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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