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________________ श्रमण परंपरा का इतिहास नहीं है? धर्मप्राण लोकाशाह को धर्मोद्धार के लिये आमूलचूल को चरितार्थ करते हुए यतिपतियों-श्री पूज्यों और मठाधीशों समग्र क्रान्ति का सूत्रपात करने के लिये प्रेरणा प्रदान करने ने लोकाशाह के विरुद्ध देशव्यापी षड्यन्त्रों का जाल सा वाले कारणों में सर्वाधिक प्रमुख प्रबल कारण सम्भवतः बिछा दिया। निष्कम्प-अडोल धैर्य के साथ धर्मोद्धारक यही प्रश्न रहा होगा कि जिस प्रकार एक माता किसी के लोंकाशाह जूझते रहे - तत्कालीन उन महान् शक्तियों के द्वारा उसकी संतति के रूधिर से पूजा करवाने में किसी भी इन षड्यन्त्रों से । दशा में प्रसन्न नहीं होती प्रत्युत अप्रसन्न हो इस प्रकार के धर्मक्रान्ति की विजय : नृशंस नर पिशाच का प्राणान्त करने के लिये कटिबद्ध हो अन्ततोगत्वा प्रबुद्ध-प्रबल जनमत के समक्ष उन जाती है ठीक उसी प्रकार षड्जीव-निकाय के तात-मात महाशक्तियों को मुंह की खानी पड़ी। लोकाशाह द्वारा तीर्थंकर प्रभु षड्जीव निकाय की हिंसाजन्य पुष्प-धूपादि “जिनमती" के नाम से प्रतिष्ठापित परम्परा गुजरात, पूजा से क्या कभी प्रसन्न हो सकते हैं?" काठियावाड़, मारवाड़, मेवाड़, मालव और उत्तरप्रदेश के प्रमुख नगर आगरा तक एक सुदृढ़ सशक्त, ससंगठित अभिनव धर्मक्रान्ति का सूत्रपात : सद्धर्म संगठन शक्ति के रूप में उभर कर जन-जन के यह लोमहर्षक, हृदय द्रावी प्रश्न धर्मवीर लोकाशाह हृदय में प्रतिष्ठापित हो गई। उसकी विजय-वैजयन्ती के अंतर्मन को कचोटने लगा। उन्होंने सर्वजन बोधगम्य उत्तरोत्तर आर्यधरा के सुविशाल क्षितिज पर लहर-लहर लोक भाषा में “लोकाशाह के ५८ बोल” आदि सरल लहराने और फहर-फहराने लगी। साहित्य का निर्माण कर धर्म के मर्म को, शास्त्रों के गहन तथ्यों को जन-जन तक पहुंचा कर एक अभिनव धर्मक्रान्ति जिस सशक्त-सफल-समग्र धर्मक्रान्ति का लोकाशाह का सूत्रपात किया। लोकाशाह द्वारा अभिसूत्रित इस धर्म द्वारा सूत्रपात किया गया, उसकी सफलता के प्रमाण क्रान्ति ने समग्र जैन जगत् की आंखें खोल दीं। राजनगर इतिहास के पन्नों पर अमिट स्वर्णाक्षरों में अंकित होने के (वर्तमान का अहमदाबाद) और अनहिलपुर पत्तन (पाटण) साथ-साथ प्रत्येक धर्मनिष्ठ सन्नागरिक को सुस्पष्टतः प्रत्यक्ष में धर्मप्राण लोकाशाह द्वारा प्रबलवेग से उद्घोषित यह भी दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम प्रमाण तो यह कि श्रमण अश्रुतपूर्व धर्मक्रान्ति का उद्घोष अकल्पनीय, अप्रत्याशित भगवान् महावीर द्वारा प्रतिष्ठापित-प्ररूपित धर्म के विशुद्ध उग्रवेग से आर्यधरा के दिग्दिगन्त में गुंजरित हो उठा। स्वरूप में कलंक-कालिमा-कलुषित विकृतियों की जनक लोकाशाह द्वारा प्रसारित शास्त्रीय बोल यत्र-तत्र-सर्वत्र चैत्यों में ही नियत निवास करने वाली चैत्यवासी परम्परा जन-जन के समवेत स्वरों में मुखरित हो अमोघ रामबाण धरातल से पूर्णतः तिरोहित हो चकी है और एक समय अपने तन्त्र-मन्त्रों के बल पर समग्र आर्यक्षेत्र को शताब्दियों की भांति धर्म के ठेकेदार, मठाधीशों, श्री पूज्यों एवं यतिपतियों को हतप्रभ करते हुए उनके कर्णरन्ध्रों को तक अपने सर्वस्व से आच्छादित अभिभूत किये रखने बधिर करने लगे। छत्र चामरधारी मठाधीशों-भट्टारकों वाली यति परम्परा आज अज्ञात कोने में अंतिम श्वासें श्री पूज्यों के पैरों के नीचे की धरा रसातल में धसकने लेती हुई अपनी जीवन लीला समाप्त करने जा रही है। लगी। मठों-यतिपतियों के उपाश्रयों की नीवें प्रचण्ड भूकम्प लोकाशाह द्वारा की गई धर्मक्रान्ति की सफलता की के झोंकों के समान इस धर्मक्रान्ति के आघातों से हिल दूसरी सशक्त साक्षी यह है कि उस क्रान्ति के प्रवल प्रवेग उठी। “खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे" इस लोकोक्ति से प्रभावित हो विपुल समृद्धियों अथवा प्रचुर परिग्रहों के |श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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