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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि और तो और मोक्ष प्राप्ति तक के लिये, जन्म जरा-मृत्यु से पूर्णतः मुक्ति प्राप्त करने के प्रयत्नों तक के लिये भी निषेध के साथ साथ स्पष्ट शब्दों में घोष किया - " सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे सत्ता न हंतब्बा, न अजावेयव्वा न परिधित्तव्वा, न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे निइए सासए.... । " १ आचारांग सूत्र के “ सत्थ- परिण्णा” अध्ययन में " अणगारा मोति एगे पवयमाणा जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं पुढविकम्मसमारम्भेणं पुढविसत्थं समारम्भेमाणा अण्णे अग रूवे पाणे विहिंसई । "२ इस पाठ से यह स्पष्टतः प्रतिध्वनित होता है कि त्रिकालवर्ती समस्त भावों के हस्तामलकवत् द्रष्टा- ज्ञाता, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी प्रभु महावीर ने प्रवर्तमान हुण्डावसर्पिणी काल के पूर्वधर कालोत्तरवर्ती नियत निवासी चैत्यवासियों, मठाधीशों, श्रीपूज्यों औषध - भैषज - तन्त्र-मन्त्र- प्रतिमाप्रतिष्ठानुष्ठान से विपुल अर्थोपार्जन कर छत्र चामर शिविका आदि प्रचुर परिग्रह के अम्बार संचित कर धर्म के स्वरूप को दूषित एवं कलंकित करने वाले श्रमण - नामधारी शिथिलाचारियों को लक्ष्य करके ही फरमाया होगा कि जो लोग - "हम श्रमण हैं" - यह कहते हुए भी पृथ्वी, अप्, तेजस्, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रसकाय का आरम्भसमारम्भ करते-करवाते और करने वालों का अनुमोदन करते हैं वे घोर अनिष्ट- अहित एवं अबोधि ( अज्ञानमिथ्यात्व) के पात्र बन अनन्त काल तक षड्जीव निकाय में जन्म मरणादि दारुण दुःखों को भोगते हुए भ्रमण करते रहेंगे । इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर निमीलित नेत्रों वाले कदाग्रहियों को छोड़ शेष सभी मुमुक्षु भव्यों को अटूट आस्था के साथ अटल विश्वास हो जाता १. आचारांग १/४/२/२, श्रु स्कंध ४, अध्ययन १, उद्देशक गद्य- १ ४ Jain Education International है कि इस प्रकार षड्जीव - निकाय के आरम्भ - समारम्भ से ओत-प्रोत, दोषपूर्ण और अनन्त काल तक भव-भ्रमण करवाने वाला मंदिर, मूर्ति निर्माण एवं स्नान- धूप-दीप नैवेद्य, माल्यार्पण आदि से जिन प्रतिमा पूजन का विधान न तो चतुर्विध तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर प्रभु ने किया और न केवली काल से लेकर अंतिम पूर्वधर काल के किसी पूर्वधर आचार्य ने ही इसके अतिरिक्त यह भी एक शाश्वत सर्वसम्मत एवं निर्विवाद तथ्य है कि चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना के माध्यम से धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर ही होते हैं न कि कोई अन्य | चाहे वह बड़े से बड़ा आचार्य अथवा केवली ही क्यों न हो। इस प्रकार की स्पष्ट वस्तुस्थिति में धर्मतीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर भगवान् के धर्म तीर्थ में उन त्रिलोकबन्धु तीर्थेश्वर द्वारा प्रतिपादित प्रतिष्ठापित धर्म के प्राणभूतआधारशिला स्वरूप सिद्धान्तों में, धर्म के मूल स्वरूप में उनके कथन के, उनके उपदेशों के एकान्ततः प्रतिकूल मंदिर - मूर्तिनिर्माण- प्रभु की प्रतिमा के पूजन-अर्चन जैसी सावद्य मान्यताओं को प्रचलित करता है तो वे सावध मान्यताएं किसी भी जिनोपासक जैन धर्मावलम्बी के लिये अनाचरणीय एवं एकान्ततः अमान्य ही होंगी। जिनवचन विरोधी इस प्रकार की सावद्य मान्यताओं वाला धर्म किसी भी दशा में “जैन धर्म" नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार का सावध धर्म तो आचार्याभास सावद्य आचार्यों के सावध धर्म के सम्बोधन से सावद्याचार्यों के धर्म की संज्ञा से ही अभिहित किया जा सकता है 1 " षड्जीव - निकाय के प्राणि मात्र को पुत्रवत् प्यार करने वाले त्रिलोक तात-मात तीर्थकरों की प्रतिमाओं का षड्जीव-निकाय के जीवों की हिंसा से ओत-प्रोत प्रक्षालन पुष्प - धूप दीपादि से पूजा क्या वस्तुतः एक माता की उसके पुत्र-पुत्रियों के रुधिर से पूजा करने जैसी विडम्वना २. आचारांग १/१/२/३, प्र.श्रु. स्कं., अध्ययन २, उद्देशक १, गद्य. श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमण परंपरा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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