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________________ वंदन -अभिनंदन ! दिव्य पुत्र को जन्म दिया था, घर-घर मंगल छाया था।। प्रबल पुण्य इसके है, परखा, चमकेगा यह सकल मही।। नाम रखा था गिरधर उसका, देख-देख हरषाते थे। आर्या की सुन बात चौथ ने, मन में सोच-विचार किया। दो-दो बेटे पाकर दम्पति, फूले नहीं समाते थे। सभी जनों की राय जानकर, उसे उन्हें फिर सौंप दिया।। दोनों सुत स्नेह भाव से, साथ साथ खेला करते। ममता मयी रुक्मां आर्या ने, लाड़-प्यार कर ज्ञान दिया। राग द्वेष के भाव कभी नहीं, बच्चों के मन आया करते।। मिली शान्ति कुछ गिरधर की, पा आर्या की दया मया।। इन ही खुशियों के सागर में फिर से प्रगटा मुन्ना एक। फिर कुछ माह के बाद उसे ले, बीकानेर सिधाई थी। अपना भाग्य सराहते दम्पति, तीन पुत्र आँगन में देख ।। भैंरुदान महाविद्यालय में, शिक्षा उच्च दिलाई थी।। जन-जन भी मुख बोल रहा था, भीवराज के पुण्य प्रबल । धन्य दिया रुक्मा आर्या ने, धर्म बोध व्यवहारिक ज्ञान। पर क्या खुशियाँ हरदम रहती, आज दिखता वो नहीं कल । । सुरक्षित को सींचा तब ही तो, सुमन महक रहा है चहुँ कान ।। सुख-दुख तो है धूप छाँव सम, आता-जाता रहता है। बच्चे तो कोमल कलियाँ है, जिधर मोड़ दो मुड़ जाये। लेकिन मोह-माया में फँसकर, हमें होश नहीं रहता है।। संगत जैसी मिल जाती है, उस पथ पर वो बढ़ जाये।। सुख में फूले नहीं समाते, दुख में हम मुरझा जाते। गिरधर भी तो कई वर्षों तक, आर्या जी के साथ रहे। दुख-सुख कर्माधीन सदा से, सोच समझ हम नहीं पाते ।। तब सोचो उनके संग रहकर, वो फिर कैसी राह गहे ।। देखो कैसी हरी भरी थी, भीवराज की फुलवारी। भाव जगे थे उर में ऊँचे, यह जग झूठी मोह माया । हाय! आय दुर्देव काल ने, उस पर प्रहार किया भारी ।। फँसा इसी में जो भी प्राणी, सुखी कभी नहीं बन पाया ।। उठा ले गया भीवराज को, वीरां रोई मुरझाई। सोच लिया इस झूठे जग में, रहना है अब ठीक नहीं। घुल-घुल करके पति विरह में, वो भी जग से विरलाई।। संयम का पथ अपनाना है, सच्चे सुख की राह यही।। छोटा मुन्ना बिना मातु के बिलख-बिलख कर स्वर्ग गया। फिर सद्गुरु को पाने हित थी, उसकी आँखें घूम रही। ईसर गिरधर भये बावरे, वज्रपात नहि जाय सया।। इसी दौड़ में नाथ संत से, भेंट हुई थी यहीं कहीं।। अनाथ भये, नहि रहा सहारा, बिलख रहे लख दोनों बाल । उनके सगं में चलकर गिरधर, शहर भटिन्डा आया था। रिश्ते के चौथू दादा ने, कीनी इनकी सार सम्भाल ।। नाथ गुरू के आश्रम में रह, सारा परिचय पाया था।। पर गिरधर को चैन न पड़ता, सदा सोचता रहता था। नाथ गुरू भी पा गिरधर को, फूले नहीं समाते थे। कहाँ गये तज मात-पिता, जहाँ प्रेम सुधा रस बहता था।। देख योग्यता उसे यहीं पर, दीक्षा देना चाहते थे।। घर में आते हमें न पाते, जब आवाज लगाते थे। कपूरथला में इन नाथों का आश्रम मुख्य बताते हैं। दौड़े-दौड़े आते दोनों, साथ बैठकर खाते थे।। इसीलिये दीक्षा देने हित, गिरधर को वहाँ पे लाते है।। नहीं आँखों से दूर किया अब भूल गये कहाँ सारा प्यार। पर गिरधर का मन नहिं माना, क्षण में वहाँ से विदा हुआ। समझ न आता उसे जगत् का, मोह-माया का अद्भुत जार।। आर्य समाजी देशराज से, फिर उसका सम्पर्क हुआ।। चिन्ता में दिन निकल रहे थे, भाग्य योग से बात बनी। उनके निजी चिकित्सालय में कई दिनों तक कार्य किया। पास उपासरा था यतियों का, रुकमा आर्या ज्ञान धनी।। वहीं वेद उपनिषद गीता पढ़कर अद्भुत ज्ञान लिया।। रहती थी, लख उसको जांचा, भाग्यवान् यह दिखता बाल । । गिरधर की लख दिव्य योग्यता, देशराज ने किया विचार । उसने मिल चौथू दादा से, पूछा उसका सारा हाल।।। दीक्षित हो गर आर्य संग में चमके निश्चय विश्व मझार।। सुनकर बोली, इस बालक को, हमें सौंप दो, डरो नहीं। । १. सहा २. चारों ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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