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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि पर यह गिरधर कव कहाँ महके, रहस्य गर्भ था किसे पता। | श्रमण सम्मेलन शहर सादड़ी, सोजत को भी निरख नयन ।। उन्हीं दिनों में युवाचार्य गुरु, शुक्लचन्द विचरण करता।।। अनुभव प्राप्त किया था नामी, निखर हुये फिर संत बड़े। शिष्यों को ले साथ पधारे, कपूरथला के भाग्य जगे। लेखक अनुवादक, सम्पादक, बन कर ग्रंथ अनेक गढ़े।। अमृत वाणी रोज वरसती, पीने हित जहाँ भीड़ लगे।। तत्व चिंतामणी, श्रावक कर्तव्य, ग्रंथ अनुपम लेखन कर। गिरधर भी आ ठीक समय पर, सदा प्रवचन सुनता था। शुक्ल प्रवचन, चार भाग में, रचे आपने अति सुन्दर।। सुन-सुन करके ज्ञान सुधा से, अपने मन को रंगता था।। श्रमणावश्यक सूत्र आपने, जन-जन को देने हित बोध । रंग लगा तो लगा किरमची, फिर तो उसने ठान लिया। अतिचारों का सरल अर्थ कर, लिखी टिप्पणियाँ कर-कर शोध ।। इन्हीं गुरू के चरणों मे गर, मिल जाये मुझ छत्र छियाँ।।' देवाधिदेवरचना, पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद किया । धन्य-धन्य मम जीवन होगा, सिद्ध मनोरथ हो सकते। अर्थ सहित रच वृहदालोयणा, जन-जन पर उपकार किया।। पर साधू तो रमते योगी, गंग प्रवाह जिम है बहते।। आचार्य अमर एवं गेंडेराय की, जीवन गाथा आदि कई। कुछ दिन ही रुक, विचरण कीना गिरधर ने जब कान सुनी। वैराग्य इक्कीसी छोट मोटे, लेखों का है पार नहीं।। दुखी हुआ मन, इत-उत पूछा, किधर गये वो महा मुनी।। महा प्रभाविक वाणी अद्भुत, जादू जैसा काम करे। चला खोजते, कई दिनों तक, चलते-चलते थका मगर । एक वार जो सुनले प्राणी, पुनः-पुनः मन आश करे।। खान-पान भी भूल गया था, बस दर्शन की लगी जिगर।। देश समाज जन हित को रखकर, सदा गिरा वरसाते है। आखिर आश फली थी उसकी, शाहकोट में आकर के। दीन-हीन-असहाय जनों को, पहले गले लगाते हैं।। विराज रहे थे यहीं गुरूवर, दर्श किया था जाकर के।। स्कूल औषधालय छात्रालय, पुस्तकालय कई जगह चले। चरणा में नम प्रगट किये थे, अपने मन के भाव सभी। दीन-हीन हित अनुदान का, कार्यक्रम भी सदा चले ।। सुनकर ज्ञानी गुरुदेव ने, जाँच परख क्षण कहा तभी।। बन्द पड़ी थी जीर्ण-शीर्ण कइ, जगह-जगह पर संस्थायें। रहो यहाँ पर शिक्षा पावो, भाव तुम्हारे जान लिये। पुनः आपके उपदेशों से, नये प्राण उनमें आये।। उचित समय लख दीक्षा देंगें, सुनकर गिरधर हर्ष हिये।।। | देख दिव्यता अलंकार कई, दे संघों ने कीना मान । लगा सीखने ज्ञान यहाँ फिर, शभ संवत शभ माह दिन आय। | लेकिन मन में रती मात्र भी. नहीं दिखाता है अभिमान।। वर्ष सात सुद क्वार त्रयोदशी, भू साढोरा, पावन माँय ।। अब ढ़लते दिन भी आये पर, देखो मन में कितना जोश । दीक्षा व्रत को लेकर गिरधर. महेन्द्र मनि के शिष्य बने।। लूटा रहे हैं घूम धर्म हित, उदार भाव से अपना कोष।। आशीर्वाद महागुरु का पाकर, गिरधर से वो 'सुमन' बने ।। कहाँ तक गुण गाऊँ गुरु तेरे, गाते-गाते कलम थकी। सान्निध्य मिला अब महागुरू का, फिर थी उर में बड़ी लगन।। सेवाओं का पूरा लेखा, अब मुझ से नहीं जाय लिखी।। गुजराती, पंजाबी, अंग्रेजी, प्राकृत संस्कृत अरु व्याकरण ।। धन्य-धन्य उनपचास वर्ष लग, उत्तर से दक्षिण तक घूम । अध्ययन कर, फिर हिन्दी का भी, प्राप्त किया था ऊँचा ज्ञान। वीर प्रभू का ध्वज लहरा कर, चहूँ ओर मचाई धूम।। जैनागम का गहन ज्ञान कर, अपर ग्रंथ कइ लिये जान ।। चातुर्मास गुणचास किये फिर, शेखे काले विचर-विचर। उच्च कोटि के ज्ञानी बनकर, जन मन मन्दिर छाय गये। जैन धर्म की शान बढ़ाई, गर्व संघ को है तुझ पर।। शुक्ल पूज्य भी देख प्रतिभा, फूले नहीं समाय रये ।। पचासवाँ चौमासा धन्य यह, टी.नगरी ने पाया है। सदा रहे थे साथ पूज्य के, विनय भाव रख ऊँचा मन ।। आस पास के उप नगरों को, कितना लाभ दिलाया है।। १. छत्रछाया २. रहे ३. संस्थाओं | धर्म ध्यान का ठाट लगा नित, लोग हजारों उमड़ रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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