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२८८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
है और स्वास्थ्य को दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं। स्वास्थ्योपयोगी जैनधर्म के वे सिद्धान्त यद्यपि भले ही स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्णित न किए गए हों, किन्तु मानव मात्र के लिए मानव शरीर की दोषों से रक्षा के निमित्त आध्यात्मिक शुद्धि हेतु प्रतिपादित वे नियम निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं । आध्यात्मिक शुद्धि एवं आत्म कल्याण की भावना से अभिभूत मनुष्य के लिए भले ही उसके शारीरिक स्वास्थ्य का कोई महत्व न हो, किन्तु एक गृहस्थ एवं श्रावक को तो शरीर की रक्षा का उपाय करना पड़ता है। जिस प्रकार अन्यान्य दोषों से आत्मा की रक्षा करना उसका परम कर्तव्य है, उसी प्रकार रोगों से शरीर को रक्षा करना भी परम कर्तव्य है। शरीर की रक्षा के बिना अथवा स्वस्थ शरीर के बिना धर्म साधना सम्भव नहीं है। धर्म का अभिप्राय मानव जीवन की निष्क्रियता भी नहीं है कि धर्म के नाम पर मनुष्य स्वयं को समस्त लौकिक कर्मों से विरत कर ले, अपितु आवरण को शुद्धता एवं संयम पूर्ण जीवन ही वास्तविक धर्म है। जीवन की उपयोगिता शरीर के बिना नहीं है। अतः व्यवहारिक जीवन में शरीर की रक्षा करना तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य रक्षण हेतु सदैव सजग रहना मानव मात्र का परम कर्तव्य है। चारों ही पुरुषार्थ की सिद्धि शरीर के ही माध्यम से होती है और शरीर का स्वास्थ्य ही इनका मूल आधार है। आचार्यों के शब्दों में-"धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।"
यह महत्वपूर्ण तथ्य है जो आचार्यों की गहन दृष्टि का परिणाम है, लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टि से उपयोगी एवं सार्थक है। अतः अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हेतु सतत प्रयत्नशील रहना हमारा नैतिक दायित्व हो जाता है। शरीर के प्रति मोह नहीं रखना आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, किन्तु इसका यह भी अभिप्राय नहीं है कि शरीर की पूर्ण उपेक्षा की जाय। जानबूझ कर शरोर की उपेक्षा करना एक प्रकार का आत्मघात है और आत्मा घात को शास्त्रों में सबसे बड़ा दोष माना गया है। अतः धर्म साधना हेतु आहार आदि के द्वारा शरीर का साधन करना तथा अहित विषयों से उसकी रक्षा करना और विकार एवं रोगों से उसे बचाना आवश्यक है। एकान्ततः शरीर की उपेक्षा करने का उल्लेख किसी शास्त्र में नहीं है। जैनधर्म में भी आत्म साधना के समक्ष शरीर को यद्यपि नगण्य माना गया है, किन्तु पूर्णतः उसको उपेक्षा का निर्देश नहीं किया गया। अतः यावत् काल शरीर की आयु है, तावत् काल उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर यह ध्यान रखने योग्य है कि शरीर को स्वस्थ रखना और उसे रोगों से बचाना एक भिन्न बात है और शरीर से मोह रखते हुए उसके माध्यम से भौतिक सुखों का उपयोग करना एक भिन्न बात है। जैनधर्म शरीर को भौतिक सुखों से विरत रखने का निर्देश तो देता है, किन्तु स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सात्विक उपायों के सेवन का निषेध नहीं करता।
मानव शरीर के स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से तथा अहित विषयों में शरीर की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जैनधर्म ने मनुष्य के दैनिक आचरण तथा उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जो शारीरिक व मानसिक दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक विकास एवं सात्विक जीवन निर्वाह के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । जैनधर्म में प्रतिपादित सिद्धान्त जहाँ मनुष्य के आध्यात्मिक मार्ग को प्रशस्त करते हैं, वहां लौकिक किंवा व्यावहारिक जीवन के उत्थान में भी सहायक होते हैं । सात्विक जीवन निर्वाह हेत मनुष्य को प्रेरित करना उनका मुख्य लक्ष्य है। अतः स्वास्थ्य रक्षा एवं आरोग्य की दृष्टि से जैन धर्म आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अत्यन्त निकट है। जीवन की कसौटी पर कसे हए सिद्धान्त विज्ञान की तुला में जब समानता प्राप्त कर लेते हैं, तो जीवनोपयोगी उन सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार प्राप्त हो जाता है। अतः मानव जीवन की सार्थकता का निर्वाह करने वाले, मन-वचन-कार्य में शुद्धता उत्पन्न करने वाले, सात्विक एवं मानवोचित विशुद्ध भावों का उद्भव करने वाले नियम और सिद्धान्त जब प्रकृति के सांचे में ढल जाते हैं, तो स्वतः ही वैज्ञानिकता की परिधि में आ जाते हैं । उनको पूर्णता ही वैज्ञानिकता है।
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